सन्त सतगुरू के सतसंग और उनके उपदेश से प्राप्त होगी

सन्त सतगुरू के सतसंग: जहाँ तक यह बात कि उसके भोग सब नाशवान हैं, परिवार और सम्बन्धी लोग सब स्वार्थ के मित्र हैं और इसमें किसी को सच्चा और पूरा सुख प्राप्त नहीं है, चित्त में प्रवेश करती जायेगी और अनुभव से उनकी सूचना होती जायेगी, वहाँ मन व्यर्थ के बन्धनों को तोड़ देगा और आवश्यक बन्धनों को ढीला करके स्वामी के दर्शन की प्राप्ति के निमित्त होशियारी और रूचि के साथ अभ्यास करेगा।

यह सब बातें जो ऊपर लिखी गई हैं सन्त सतगुरू के सतसंग और उनके उपदेश से प्राप्त होगी। अतएव सब जीवों को उचित है कि पहले संत सतगुरू की खोज करें, जब मौज से पता मिल जावे उनके सतसंग में उपस्थित होकर वचन चेतकर सुनें और विचारे और सुरत शब्द मार्ग का उपदेश लेकर जिस प्रकार बन सकें अभ्यास आरम्भ करें।

सन्त सतगुरू के सतसंग

इस संसार में सन्त सतगुरू

इस संसार में सन्त सतगुरू के अतिरिक्त और कोई किसी का सच्चा हितकारी और साथी नहीं है। वे जीव की प्रतिक्षण रक्षा व सहायता कर सकते हैं किन्तु शर्त यह है कि-कि सच्चे मन से गुरु शरण आवे।

जहाँ तक बन सके, जैसा वे निर्देश करें उसके अनुसार क्रिया आवश्यक है अपने दया का बल प्रदान करके उससे करा लेगे अपने चरणों में प्रीति लगवा कर उसके गुप्त और प्रगट बन्धन ढीले कर देंगे। इसके करने से मृत्यु के समय कष्ट बहुत कम होगा।

वे उसे अपनी दया और कृपा से अपना दर्शन देकर उसके सुरत को चरणों में लिपटा कर ऊंचे से ऊंचे और सुख के स्थान में निवास देंगे।

परम पुरूष धाम में पहुँचाकर

जब तक कि वह क्रिया करके धुर के स्थान तक पहुँचने का अधिकारी न होगा तब तक उसे कई बार मनुष्य योनि में जन्म दिलाकर और श्रेणी प्रति श्रेणी क्रिया कराकर ऊंचे से ऊंचे और अधिक से अधिक सुख स्थान में निवास देते जायेंगे और एक दिन परम पुरूष धाम में पहुँचाकर उसे अमर और परमानन्द प्रदान करेंगे।

वे जन्म मरण और देहियों के दुःख सुख से सदैव के लिये छुटकारा कर देंगे। जीव का प्रभु की भक्ति में विचलित हो जाने तथा उनकी शरण में जाने तथा शिथिल पड़ जाने के कारणों के वर्णन तथा उनके दूर करने के यत्न

जीव का प्रभु की भक्ति में विचलित हो जाने

सन्त कहते है कि परमार्थी जीवों को और उचित आवश्यक है कि अपनी प्रीति और प्रतीति कुल प्रभु सतगुरू स्वामी दयाल और सन्त सतगुरू के चरणों में बढ़ाते रहें शरण को दृढ़ करते रहें और अपना अभ्यास बिरह या प्रेम अंग लेकर नित्य करते रहें।

इस क्रिया में प्रायः विध्न पड़ जाते हैं अर्थात कभी-कभी प्रीति तथा प्रतीति रूखी फीकी, भक्ति विचलित तथा शरण शिथिल पड़ जाते हैं।

इन विध्नों के कारण ये हैं

परमार्थी जीवों का मन दशा और अवस्था को देखकर अर्थात अपने विकार और कमी को देखकर शिथिल और निराश हो जाता है।

कभी संसार की दुश्चिन्ताओं अथवा भोगों की तरंगों में अभ्यास के समय बह जाता है।

कभी प्रकृति के आश्चर्यमय क्रियाओं अथवा घटनाओं को देखकर उनका विचार देखकर भयभीत हो जाता है। उसका भेद और मुख्य कारण विदित न होने से नाना प्रकार के भ्रम तथा सन्देह उत्पन्न करके अपनी प्रीति और प्रतीति में विध्न उपस्थित करता है जैसे अकाल मरी, वर्षा, तूफान, वायु, भुचाल, युद्ध इत्यादि से हानि के भय।

प्रथम कारण के सम्बन्ध में यह कहा जाता है कि

परमार्थी जीवों को अवश्य चाहिए कि अपने मन और इन्द्रियों की चाल पर ध्यान देते चलें जहाँ तक सम्भव हो, व्यर्थ अनुचित कार्य करने से मन को रोकते रहें। जब कभी मन या इन्द्रिय उनका कहना न माने और बस में न हो सके तब सन्त सतगुरू और कुल प्रभु सतगुरू स्वामी दयाल से विनय और प्रार्थना करें और उनकी दया का विश्वास और आशा रखकर ऐसा विश्वास करे कि सन्त सतगुरू और सतगुरू स्वामी दयाल एक दिन अवश्य अपनी दया बल देकर मन और इन्द्रियों पर नियन्त्रण दिलावेंगे।

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जीव को चाहिए कि अपनी दशा पर कुछ लज्जित होकर अधिक दीनता के साथ अभ्यास में सहायता मांगे, शरण को अधिक दृढ़ करे और किसी प्रकार की निराशता चित्त में न लावें अर्थात ऐसी समझ न धारण करे कि जब तक मन और इन्द्रिय पर नियन्त्रण नहीं होगा उद्धार नहीं होगा और वे अपनी कृपा से सुरत को सब विध्नों से बचाकर सुख स्थान में पहुँचा सकते हैं। मन और इन्द्रियों को सम्हालने के लिए अपना प्रयत्न करते रहना चाहिए किन्तु आशा दया के बल का ही रखना चाहिए।

अन्तरी वैराग्य मन में उत्पन्न

दूसरे कारण के सम्बन्ध में यह वर्णन किया जाता है कि परमार्थी जीवों को उचित है कि संसार और उसके भोगों की इच्छा आवश्यकता के अनुसार उठावे व्यर्थ के तरंगों को रोकता रहे अर्थात अपने उद्यम व्यापार, घर बार के कार्य सम्बन्धियों के व्यवहार इत्यादि कार्य जो आवश्यक प्रतीत हो उनके निमित्त जहाँ तक सम्भव हो सोच विचार अथवा यत्न करने में कोई हानि नहीं है।

किन्तु संसार में मान बड़ाई की व्यर्थ अभिलाषा और भोगों की इच्छा उत्पन्न करना या किसी से वाद विवाद करना अथवा साधारण बातों में अधिक समय और ध्यान व्यय करना अथवा दूसरों के झगडों और विषयों में हाथ डालने से सदा बचना चाहिए जिससे कि अपना मन कारबार से चित्त उदास होता जावेगा, अन्तरी वैराग्य मन में उत्पन्न होता जावेगा और तभी थोड़ा बहुत अभ्यास ठीक-ठीक बन सकेगा।

परमार्थ की क्रिया के समय

परमार्थ की क्रिया के समय अनुचित और व्यर्थ की तरंगे न उठावे। जो कोई अपने अभ्यास की दशा को भी देखता रहता है उसको पता होगा कि संसार के विचार और तरंगे किस प्रकार बाधा उत्पन्न करते हैं और सच्चे परमार्थ की क्रिया से रोकते रहते हैं।

तब यह स्वयं चैतन्यता के साथ कार्य करेगा और जहाँ तक सम्भव होगा संसार के व्यर्थ और अलाभप्रद विचारों से बचता रहेगा। जैसे-जैसे चित्त में सन्त सतगुरू और परम प्रभु सतगुरू स्वामी दयाल के चरणों में प्रेम और अनुराग जागृत होता जावेगा, वैसे-वैसे संसार और उसके।

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