Jai Guru Dev जब लोग सत्संग में जाते हैं और सत्संग में बैठते हैं। तो सत्संग सुनने के बारे में भी बताते हैं। आज इस आर्टिकल के माध्यम से आप जानेंगे। सत्संग सुनने की विधि (Satsang Sunne Ki Bidhi) कैसे महात्मा समझाते हैं? उसे आप पूरा जानेंगे। तो चलिए स्टार्ट करते हैं। पूरा पढ़ें यह Mahatmayo ke परमार्थी वचन है। महात्माओं के द्वारा दिए गए सत्संग की कुछ महत्त्वपूर्ण लाइने हैं, चलिए शुरू करते हैं।
सतसंग सुनने की विधि (Satsang Sunne Ki Bidhi)
Satsang अन्तर और बाहर सम्भाल कर करना चाहिए तब उसका लाभ और प्रगट होगा। सच्चे परमार्थी (Sachhe Parmarthi) को उचित है कि सतसंग होशियारी से करे, तब उसका लाभ प्रत्यक्ष विदित होगा। जब बाहर के सतसंग (Satsang) में सम्मिलित होवे तब चाहिए कि अपने नेत्रों से गुरु या साध के नेत्रों को (जो सतसंग के अधिष्ठाता अर्थात् अफसर हैं)
दृष्टि जोड़कर देखता रहे, चाहे वे उसकी और देखें अथवा नहीं और फिर कुछ मिनट पश्चात दोनों नेत्रों (Eyes) के मध्य में अर्थात् तीसरे तिल का ध्यान करके दृष्टि को जमावे। यदि इस प्रकार अभ्यास करने में नेत्र पूरे-पूरे खुले न रहें तो कुछ हानि नहीं।
इस प्रकार दृष्टि जोड़कर बैठने में दर्शन का भी रस प्राप्त होगा और बचन भी विस्तृत रूप से सुनने में आवेंगे। अर्थात उनके अर्थ स्पष्ट और गहरे समझ में आवेंगे अथवा यह कि उनके अर्थ का हृदय पर अधिक प्रभाव होगा और वे प्रिय लगेंगे।
इसका ध्यान रखना चाहिए (Dhayan Rakhna Chahiye)
इस प्रकार की बैठक ध्यान के अभ्यास में गिनी जाती है इसका ध्यान रखना चाहिए कि मन में किसी दूसरे प्रकार का विचार न आवे जैसा कि वचन सुनता जावे अर्थात विचार करे कि उसके मन में कौन-सा अनुचित अंग भरा हुआ है या व्यवहार में आता है।
उससे जो हानि (Nuksaan) होती है उसे उसी समय समझकर उसको सच्चे मन से त्याग दे। बचनों से जो अंग अच्छे और ठीक मालूम हों उनकी प्रशंसा उसी समय अपने अन्तर में माप कर सच्ची अभिलाषा के साथ ग्रहण करता जावे।
इस प्रकार अभ्यास (Practice) की दशा में बुरे अंग के छोड़ने की इच्छा और उत्तम अंग के ग्रहण करने की सच्ची अभिलाषा का प्रभाव हृदय पर बहुत पुष्ट होता है। पर शर्त यह है कि इसी प्रकार बचनों के विचार और मनन भी जो सतसंग के समय सुनने में आयें प्रतिदिन होते रहे तो कुछ दिनों में मन को निर्मलता प्राप्त होगी
और अपने दशा को देख विचार (Vichaar) की शक्ति भी बचन सुनते आती जायेगी इससे यह लाभ होगा कि सतसंग के अतिरिक्त और समय में भी अपने मन के चाल की सूचना और उसको ठीक रखने का थोड़ा अभ्यास होता रहेगा। शनैः-शनैः इस अभ्यास से चतुर रहने और सम्भालने की शक्ति होती जावेगी और भूल और भ्रम घटते जावेगें।
ध्यान और भजन का रस (Dhayan Or Bhajan)
जब कुछ दिन तक इस प्रकार बाहर का सतसंग जारी रहेगा तो अन्तर का सतसंग (Satsang) भी किसी प्रकार ठीक होता जावेगा। अर्थात् ध्यान के समय मन और सुरत चंचलता छोड़कर स्वरूप और भजन के समय मन शब्द में एकाग्र होकर थोड़ी देर के लिये जमने लगेगे।
जब कोई गुनावन या किसी प्रकार के विचार उत्पन्न होंगे तो उसे शीघ्र उनकी सूचना होती जावेगी। तब वह अपनी सम्हाल थोड़े से प्रयत्न से दूर कर सकेगा। इस प्रकार ध्यान और भजन (Dhayan Or Bhajan) का थोड़ा रस मिलना आरम्भ हो जायेगा और भविष्य में उन्नति हो जावेगी।
यदि ऐसे अभ्यासी को घण्टे दो घण्टे बाहर के सतसंग में बैठकर (Satsang Me Baith Kar) मन सुरत के सिमटाव और जमाव का रस लेने का स्वभाव हो जावेगा तो जब वह सतसंग से अलग होगा और यदि वह उसी समय ध्यान और भजन करेगा तो उसके मन और सुरत अवश्य ही स्वभाव के अनुसार थोड़े बहुत निश्चल रहेंगे और अभ्यास के रस और आनन्द की सहायता से धीरे-धीरे बढ़ते जावेगे और दिन प्रतिदिन दशा भी बदलती जावेगी।
सतसंग में सावधानी और चतुराई की आवश्यकता (Satsang Me Sabdhani)
विदित हो कि अन्तर के सतसंग में अभ्यासी को इस प्रकार सावधानी (Satsang Me Sabdhani) और चतुराई की आवश्यकता है जिस प्रकार की भजन के समय और सुरत जहाँ तक सम्भव हो ध्वनि का रस लेवें और ध्यान के समय नाम और स्वरूप में स्थिर होकर सिमिट जावे और थोड़ा बहुत सिमटाव और जमाव का रस प्राप्त करे।
किन्तु अन्दर के सतसंग में अभ्यासी की यह दशा उस समय होगी जब की वह मन की तरंगों और विचारों को छोड़कर ध्वनि और रूप ध्वनि और रूप में लगेगा। यदि इच्छा प्रबल है और भोगों की ओर से चित्त में कुछ वैराग्य है तो मन और सुरत शीघ्र सीमिट कर ध्वनि में लग जावेगे अन्यथा,
जब बाहर का सतसंग जो इस प्रकार से जैसा कि ऊपर लिखा गया Satsang Sunne Ki Bidhi अन्तर और बाहर सम्भाल कर करना है, किया जावेगा तो मन और सुरत को एकाग्र करने के लिये अन्तर के अभ्यास में उससे बहुत सहायता मिलेगी अर्थात अन्तर का सतसंग या अभ्यास किसी प्रकार ठीक हो सकेगा और भविष्य में धीरे-धीरे उन्नति होती जावेगी। मन और सुरत नौ द्वारों से झांक कर इस लोक में भोगों में फंस गई।
विदित हो कि सुरत की धार प्रथम मन के स्थान पर और फिर वहाँ के अनेक धाराओं में विभाजित होकर इन्द्रिय घाट पर बैठी। इन्द्रियों के स्थान से धाराएँ जारी हुई और उनका सम्बन्ध उस संसार की रचना भोगों और पदार्थो के साथ हुआ। मन प्रत्येक इन्द्रिय द्वार पर अलग-अलग भोगों का रस और आनन्द लेकर प्रसन्न रहने लगा।
निष्कर्ष
ऊपर अपने महापुरुषों के द्वारा दिए गए सत्संग वाणी को अक्षरों के माध्यम से पढ़ा और साथ में आपने Satsang Sunne Ki Bidhi अन्तर और बाहर सम्भाल कर करना जाना। आशा है आप के ऊपर दिया गया कंटेंट जरूर अच्छा लगा होगा । पोस्ट पढ़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद JaiGuruDev
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