सच्चे परमार्थ को प्राप्त करने के लिये भजन या ध्यान के समय प्रेम और प्रीति के साथ अभ्यास करना चाहिए, ताकि ध्यान और भजन के समय संसार के विचार मन में ना आवे। महापुरुषों ने सत्संग में लोगों को सब कुछ बताया है कि सच्चा परमारथ प्राप्त करने के लिए भजनों ध्यान के समय आपके लिए क्या जरूरी है? चलिए जानते हैं महापुरुषों की सत्संग वाणी को टैक्स के माध्यम से,
सच्चे परमार्थ को प्राप्त करने के-के बारे में
महापुरुष कहते हैं जो लोग पूरे संसारी होते हैं उनके मन में धन स्त्री पुत्र और अपने मान बड़ाई की मुख्यता रहती है। इस युग का हाल देखकर कहा जाता है कि इस प्रकार के लोग अधिकतर हैं और उनके मन में भय और प्यार सच्चे प्रभु का नहीं है। अधिकतर लोगों के मन में इस बात का पूरा-पूरा विश्वास भी नहीं है कि इस रचना का कोई सच्चा (सतगुरू) और महाप्रभु विद्यमान हैं,
फिर भय ओर प्रीति कैसे हो? ये लोग थोड़ी-सी विद्या रटकर, नास्तिकों के वाणी या वचन सुन अथवा पढ़कर बहुत शीघ्र उसे स्वीकार कर लेते हैं और धोखा भी खाते हैं।
सच्चे परमार्थ को प्राप्त करने के लिये
सच्चे परमार्थ को प्राप्त करने के लिये दो बातें आवश्यक हैं। एक बाहर से चाल चलन और व्यवहार का नेक और ठीक होना और दूसरे सच्चे SatGuru और महाप्रभु के भेद को लेकर उससे मिलने की युक्ति जानकर नित्य अपने घर में अभ्यास करना, अर्थात निज धाम की ओर नित्य प्रति चलना और मार्ग तैयार करते जाना।
जब तक कि बाहर का चाल चलन और व्यवहार ठीक न होगा, मन में थोड़ी बहुत निर्मलता न होगी, सच्चे प्रभु का थोड़ा बहुत प्यार और खोज पैदा न होगा।तब तक सुरत शब्द योग का अन्तर मुख अभ्यास (जिसके अतिरिक्त और कोई युक्ति प्रभु से मिलने की नहीं हैं) ठीक से नहीं बन पायेगा।
झलक दिखलाई दे जाय तो
किसी-किसी व्यक्ति की तो यह दशा है कि जैसा कि उनको स्थानों का भेद मिला है कि जब वे अभ्यास में बैठते हैं तो उसकी झलक दिखलाई दे जाय, तो चाहते हैं कि वह बराबर उनके सामने खड़ी अथवा स्थिर रहें।
पहले स्थान की जो ध्वनि उनको सुनाई देती है उनकी जैसी की चाहिए वे सम्मान नहीं करते इस कारण अभ्यास रूखा और अरूचिकर प्रतीत होता है।
तीसरे तिल अथवा सहस दल कमल का दृष्टिगोचर होना और स्थिर होना सरल बात नहीं है क्योंकि ये स्थान वैराट रूवरूप और ब्रह्म के हैं। इतने शीघ्र इन स्थानों का देखना और स्थिर रहना कठिन है।
किन्तु कभी-कभी उनके स्वरूप अथवा झलक दिखाई देना और घण्टे का शब्द सुनाई देना यह भी बड़े भाग्य की बात है।
शैनेः-शैनेः शब्द भी स्पष्ट और समीप प्रतीत होता जायेगा और यदा कदा स्थान का स्वरूप भी दिखाई देगा।
प्रेम और प्रीति के साथ अभ्यास
प्रेम और प्रीति के साथ अभ्यास करते रहना उचित है। विचार करना चाहिए कि सन्त मत के अभ्यास का तात्पर्य यह है कि मन और सुरत जो पिण्ड में बधे हुए हैं ब्रह्माण्ड की ओर और फिर उसके पार चढ़ कर पहुँचे।
यदि कोई ध्यान में अपने मन और सुरत को प्रथम अथवा द्वितीय स्थान पर जमावे और थोड़ी देर तक स्थिर रखे तो उसे चाहे कुछ दिखाई दे अथवा नहीं, सिमटाव और चढ़ाई का रस तो उसे अवश्य ही प्राप्त हो जायेगा।
इसी भांति जो ध्यान और भजन के समय अपने मन और सुरत को मोड़ देगा और जहाँ से ध्वनि आ रही है वहाँ धीरे-धीरे पहुँचावेगा, तो उसे भजन का आनन्द अवश्य आवेगा।
ध्यान और भजन के समय संसार के विचार
अतएव उचित है कि ध्यान और भजन के समय संसार के विचार छोड़कर अपने मन और सुरत को प्रथम स्थान पर स्थिर करे। यदि वहाँ से उतर आवे तो पुनः उन्हें वहाँ पहुँचावे और स्थिर करे।
इसी प्रकार बारम्बार करे तो थोड़ा बहुत शब्द भी सुनाई देगा और रूप भी दिखाई देगा। सिमटाव और चढ़ाई का जो आनन्द है वह भी अवश्य मिलेगा।
किन्तु इन सब कार्यों के पूर्व कुछ विरह और प्रेम की अधिक आवश्यकता होती है। यदि अभ्यास के समय मन वश में न आवे तो उचित है कि किसी महान पुरूष की वाणी लेकर उसमें से प्रेम अंग के शब्द को लेकर जिसका कि हृदय पर अधिक प्रभाव होता हो ध्यान से पढ़कर भजन में बैठे तो मन की दशा कुछ परिवर्तित होगी और भजन भी कुछ ठीक प्रकार से बन पड़ेगा।
मन को इस प्रकार समझाना
कभी-कभी अपने मन को इस प्रकार समझाना कि जब वह संसार के कार्य करता है तो परमार्थ का विचार नहीं करता तो जब वह परमार्थ का कार्य करता है तो संसार के कार्यो का क्यों विचार करता है।
जब तब वह सच्चे प्रभु के चरणों में प्रार्थना भी करता रहे जिससे कि मन निर्मल और निश्चल होकर भजन में लगे। विचार करना चाहिए कि भजन और ध्यान के समय संसार के विचारों को मन में उठाने से सच्चे प्रभु का अत्यन्त अपमान और निरादर होता है।
यदि कोई अपने पिता अथवा अधिकारी के सामने जाकर उनकी ओर न देखे न सुने और दूसरे से बातचीत करने लगे तो वे कितने अप्रसन्न होंगे। उसी प्रकार प्रभु भी प्रसन्न नहीं होता। इसी कारण अभ्यास में रस नहीं आता। अतएव यह उचित है कि यदि अधिक न बन सके तो थोडा ही अभ्यास करे किन्तु जहाँ तक सम्भव हो ठीक से ध्यान के साथ करे।
भजन या ध्यान के समय
यदि कभी भजन या ध्यान के समय शरीर में कुछ शिथिलता आती हुई प्रतित हो अथवा निद्रा आने लगे तो उस समय अभ्यास को छोड़कर कुछ देर के लिये हाथ और पैर फैला दें। यदि अधिक शिथिलता प्रतीत होने लगे तो उठकर दो चार पग टहले और फिर बैठ कर अभ्यास करें।
सुरत शब्द मार्ग से अभिप्राय यह है कि जीवात्मा को बाहर से उसका रूख फेर कर शब्द को ध्वनि में जो प्रति क्षण घट-घट में हो रही है, लगावे और उसको सुने तथा ऊपर को चढ़ावे अर्थात जिस स्थान से ध्वनि आ रही है वहाँ पहुँचावे।
सत्संग निष्कर्ष
महानुभाव ऊपर दिए गए कंटेंट के माध्यम से आपने जाना की सच्चे परमारथ को प्राप्त करने के लिए साधना के वक्त हमें क्या जरूरी रहता है? हम अपनी साधना को कैसे सफल बना सकते हैं? महापुरुषों ने सब कुछ समझाया है।सत्संग आर्टिकल पढ़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद और अधिक सत्संग पोस्ट पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें ।
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