गुरूमुख और मनमुख के लक्षण, जीवों को अपनी देख रेख करते हुए चलना चाहिए

गुरूमुख और मनमुख: थोड़ा-सा वर्णन लिखा जाता है कि जिसके अनुसार जीवों को अपनी देख रेख करते हुए चलना चाहिए। सतगुरू अपनी दया से सर्वदा जीव की सम्हाल करते रहते हैं और चाहते हैं कि सब सेवक उनके चरणों में मुख्य प्रीति और प्रतीति करें पर यह मन नहीं चाहता कि जीव को ऐसी अवस्था प्राप्त हो।

वह भोगों की ओर खींचता है और अपने आदेश के अन्तर्गत जीवों को चलाना चाहता है। अतएव जीवों को चाहिए कि मन की घात से बच कर सतगुरू के चरणों में लगे रहें और उसके जाल में न पड़ें। नीचे गुरूमुख और मनमुख के लक्षणों का

सतयुग पर बाबा जयगुरुदेव जी का ज़रूरी संदेश
बाबा जयगुरुदेव जी

गुरूमुख और मनमुख के लक्षण

(1) गुरुमुख प्रत्येक के साथ सत्य व्यवहार करता है और बुराई की बातों से बचता है। किसी को धोखा नहीं देता और जो कार्य करता है वह सतगुरू के निमित्त और उनकी दया के बल पर करता है।

मनमुख-चतुराई और कपट व्यवहार करता है। अपने स्वार्थ के लिए औरों के साथ विश्वासघात करता है। अपनी बुद्धि और चतुराई पर निर्भर रहता और अपने आप को प्रकट करता है।

(2) गुरूमुख-मन और इन्द्रियों को रोकता है चित्त से दीन रहता है। तान के वचन को सहन करता और शिक्षाप्रद बातों को प्यार से सुनता है। वह अपना सम्मान नहीं चाहता है।

मनमुख-मन और इन्द्रिय का दमन उसे अच्छा नहीं लगता किसी से दबना अथवा उसके आदेश का पालन करना नहीं चाहता। दूसरे की प्रशंसा को सहन नहीं करता।

(3) गुरूमुख-किसी पर हठ पूर्वक बल नहीं देता। सबकी स्वेच्छानुसार सेवा करने को तत्पर रहता है औरों का उपकार करना चाहता है। अपनी पूजा और प्रतिष्ठा की इच्छा नहीं रखता। सतगुरू का स्मरण रखता और उनके चरणों में लीन रहता है।

मनमुख-दूसरों से आदेश पालन कराता है और सेवा लेता है। वह अपना मान चाहता है। बिना प्रयोजन किसी से कोई प्रीति नहीं रखता। प्रसन्नता से अपनी पूजा और प्रतिष्ठा कराता है। सतगुरू के चरणों में लवनीन नहीं रहता।

मनमुख और गुरूमुख के लक्षण

(4) गुरूमुख-दीनता में बर्तता है। यदि कोई इसकी निन्दा निरादर अथवा अपमान करता है तो दुखी नहीं होता, अपितु उसमें अपने लिए भलाई समझता है।

मनमुख-निन्दा और अपमान से डरता है। अपने निरादर से अप्रसन्न होता और अपना सम्मान चाहता है।

(5) गुरूमुख-सेवा में कभी आलस्य नहीं करता और कभी बेकार नहीं बैठना चाहता।

मनमुख-शरीर का सुख चाहता है और सेवा में आलस्य करता है।

(6) गुरूमुख-दीनता और साधारण वेश-भूषा में रहता है। जो सामग्री मिल जाती है रूखा सूखा अथवा मोटा झोटा उसी से निर्वाह करने को तत्पर रहता है।

मनमुख-सदा अच्छे-अच्छे पदार्थो को चाहता है, उन्हें प्यार करता है, रुख-सूखे और मोटे पदार्थो से अरूचि रखता है।

गुरूमुख और मनमुख मैं अंतर

(7) गुरूमुख-संसारी पदार्थो और उनके जाल में नहीं अटकता। उनके लाभ हानि में सुखी-दुखी नहीं होता। यदि कोई छोटी बात कहता हो तो उस पर क्रोध नहीं करता। सदा जीव के कल्याण और सतगुरू की प्रसन्नता पर दृष्टि रखता है।

मनमुख-संसार और उसके पदार्थो का बड़ा विचार रखता है। उनके लाभ हानि में शीघ्र सुखी दुखी होता है। यदि कोई कड़वा वचन कहता है तो शीघ्र क्रोध से पूर्ण हो जाता है। सदगुरू की कृ पा और समर्थता का विश्वास और विचार नहीं रखता।

(8) गुरूमुख-प्रत्येक बात में सत्यता और निर्मलता रखता है। चित्त से दीन और उदार रहता है। दूसरों से अच्छा व्यवहार रखता और उनकी भलाई चाहता है। आप थोड़े में सन्तोष करता है दूसरे से लेने की इच्छा नहीं रखता है।

मनमुखी-लोभी होता है और दूसरों से लेने को तत्पर रहता है, कुछ देना नहीं चाहता। वह प्रत्येक बात में अपने लाभ का विचार रखता है दूसरे का विचार नहीं करता। तृष्णा बढ़ाता है और निर्मलता नहीं रखता।

मनमुखऔर गुरूमुख मैं अंतर

(6) गुरूमुख-संसारी जीवों से बहुत प्यार नहीं रखता, भोगों की इच्छा और आशा नहीं रखता और सैर तमाशा नहीं चाहता उसे केवल सतगुरू चरणों के प्राप्ति की इच्छा रहती है और उसी के आनन्द में वह आशक्त रहता है।

मनमुख-जो कार्य करता है उसमें कुछ न कुछ अपना कार्य अथवा स्वार्थ देख लेता है क्योंकि बिना स्वार्थ के उससे कोई कार्य नहीं बन सकता। वह सदा अपना आदर और स्तुति चाहता है। संसारी इच्छा उसके ऊपर बलवान रहती है।

(10) गुरूमुख-किसी से विरोध नहीं करता, अपितु विरोधी से भी प्यार करता है। कुल, परिवार, जात पांत और बड़े आदमियों से मित्रता का अपने मन में कुछ अहंकार नहीं लाता। प्रेमी और सच्चा परमार्थी जीवों से अधिक प्यार करता है। सतगुरू के चरणों का प्रेम सदा जगाये रहता है। उनकी दया और कृपा नित्य विशेष प्राप्त करते रहना चाहता है

मनमुख-अधिक कुटुम्ब और मित्र चाहता है धनवान और शासक वर्ग से अधिक प्रीति रखता और उनकी मित्रता और अपनी जाता-पात का अहंकार रखता है। दिखावे का काम बहुत करना चाहता है और सतगुरू की प्रसन्नता का विचार कम रखता है।

गुरु मुख और मन्मुख में डिफरेंस

(11) गुरूमुख-निर्धनता और कष्ट के समय में नहीं घबराता है। जो विपत्ति आ पड़ती है उसे धैर्य के साथ सहता है। सतगुरू के दया की आशा रखता है और उनके प्रति कृतज्ञता प्रगट करता है।

मनमुख-कष्ट से अतिशीघ्र घबराकर पुकारने लगता है निर्धनता से दुखी होकर इधर उधर आरोप लगाता है।

(12) गुरूमुख-सभी कार्य प्रभु की इच्छा पर समर्पण करता है चाहे भला हो अथवा बुरा। वह अपना अहंकार उसमें नहीं लाता। अपनी बात का पक्ष नहीं करता। दूसरों की बातों को ओछा करके नहीं दिखलाता, झगडे के विषयों में नहीं पड़ता सदा सतगुरू की इच्छा देखा करता है और उनका गुण गाता हुआ चलता है।

मनमुख-सभी कार्यों में अपनत्व रखता है। अपने स्वार्थ और लाभ के लिये झगडे रगड़े से कार्य करता है और अपनी बात के पक्ष में क्रोध करने और लड़ने को तत्पर हो जाता है।

(13) गुरूमुख नई-नई वस्तुओं और बातों में नहीं अटकता क्योंकि वह देखता है कि उनकी जड़ संसार है। वह अपने गुणों को संसार में छिपाकर चलता है। अपनी प्रशंसा नहीं करना चाहता। जो बात सुनता अथवा देखता है उसमें से सतगुरू से प्रीति और प्रशंसा बढ़ाने वाली बात छांट कर रख लेता है। सदा सतगुरू की, जो सब गुणों के भण्डार हैं महिमा गाता रहता है।

मनमुख-नित्य नई-नई वस्तुयें देखना चाहता है और नई-नई बातें सुनना चाहता है। हर प्रकार का गुप्त भेद जानना चाहता है और चतुरता बढ़ाता है। सबको मिलाकर अपनी महिमा कराना चाहता है। अपनी स्तुति में वह बहुत प्रसन्न होता है।

मन मुखी और गुरुमुखी के बीच अंतर

(14) गुरूमुख-जो भी परमार्थी कार्य करता है धैर्य के साथ करता है सदा सतगुरू की दया और कृपा का बल रखता और उनके चरणों में निश्चय पक्का रखता है।

मनमुख-प्रत्येक बात में शीघ्रता करता है सभी कार्य शीघ्रता के साथ पूर्ण करना चाहता है। इसी शीघ्रता में सतगुरू की कृपा की आशा और उनके वचन भी भूल जाता है।

(15) गुरूमुख-जो कार्य करता है सतगुरू की प्रसन्नता के लिए उनकी दया और कृपा चाहता है। सर्वत्र गुरु की ही स्तुति करना चाहता है। उन्हीं की ही बड़ाई चाहता है और संसारी इच्छा नहीं करता है। ।

यह सब बातें जो गुरूमुख की चाल में वर्णन की गई हैं वे सतगुरू की कृपा से प्राप्त होगी। जिन पर उनकी कृपा होगी उसी को वे प्रदान करेंगे। जो उनके चरणों की प्रीति और प्रतीति रखते है उनको अवश्य ही एक दिन यह अवसर प्राप्त होगा। सतगुरू के चरणों का प्रेम सब गुणों का भण्डार है। जिसको प्रेम का अवसर प्राप्त हुआ उसमें ये सब गुण आ जाते है और सब मनसुख अंग एक क्षण में जाते रहते हैं।

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