जगत के भोग रोग गुरु सब देखता है निर्मल प्रेम गुरु से करना-जय गुरुदेव

महानुभाव जय गुरुदेव, Nirmal Pram Guru Se Karna जिनकी दिव्य दृष्टि खुली होती है और दूसरों को खोलने में मदद करते हैं। ऐसे जगत गुरु भोग रोग सब कुछ देखता है। आपके साथ क्या हो रहा? क्या होने वाला है? क्या कर रहे हैं? भले ही हम उनको सामने ना समझे, लेकिन जब एक सच्चा सेवक गुरु को अपना हमेशा समक्ष समानता हो ऐसे में गुरु हमारी सारी क्रियाओं और कर्मों का राज जानता है और निगरानी करता है। महानुभाव यह परमार्थी वचन संग्रह से सत्संग लिया गया है जो आप पढ़े जय गुरुदेव।

जगत के भोग रोग

जगत के भोग और रोग तब जावेंगे जब जीव गुरु की सरन पकड़ लेगा। बगैर गुरु के किसी ने आज तक प्रभू को नहीं पाया जो सबका सिरजनहार है और बगैर नाम के धीरज कैसे। आवे? जब शब्द तुम्हें गुरु कृपा से सुनने को मिले तो तुम अपनी सुरत को मन इन्द्रिय घाट से हटाकर शब्द के साथ लगा दो।

Jai Gurudev Temple Mathura
Jai Gurudev Temple Mathura

मन इन्द्रिय सदा जीव को तन में भरमाती रहती है। जीव इसी में भूला हुआ हाय, हाय, कर लोग जीवन बरबाद कर देते हैं। परन्तु आज तक करता की खबर नहीं पाई। अब तुम खूब सोच करो अपने मन में और कुछ अपने मन को रोको घाट पर, ताकि शब्द सुनो। गुरु की खास आज्ञा है कि तभी सुरत अपने घर को पावेगी जब शब्द के साथ हो जावेगी।

गुरू सब देखते है

अगर किसी दूसरे महापुरूष के सतसंग में आनन्द मिले तो तुमको चाहिए कि उसे अपने गुरु के तरफ से आया हुआ समझो। जो कुछ भी जहाँ से मिले उसे अपने गुरु साहेब की दात अथवा महान कृपा को जानो। गुरु साहब हर हालत में खबर रखते हैं जो कि हर वक्त उनकी निगाह के सामने हैं।

उनके हुकुम की तामील कितनी हो रही है यह भी वह। सब जानते हैं। इसलिए हर वक्त गुरु साहब को हाजिर व गायब में भी हाजिर समझो। हर वक्त उनसे डरते रहो ताकि कोई बुरा काम तुमसे न होने पावे और कभी भ्रम में मत आओ।

हर वक्त भय सामने रक्खो। हमेशा समझते रहो कि गुरु यहीं पर उपस्थित हैं और हमें देख रहे हैं। परन्तु किसी कारण से या हमारे पूर्व स्वभाव अनुसार दोष हम पर प्रगट नहीं करते हैं। यदि गुरु साहब उसके कर्म प्रगट कर दें तो वह सतसंग त्याग कर पूर्व कर्म अनुसार सत्य क्रिया छोड़ देगा।

इसमें संदेह न लाने पावे तब साधक पापों से बचकर निकल पाता है। उससे वही काम हो सकते हैं कि जिनको गुरु का भय छुड़ा देता है। वह अति शीघ्र सतपुरूष बनने का अधिकार प्राप्त कर लेता है और सत्य भाव, पुरूष के गुण उस मनुष्य देह में, उतर आते हैं। यह लाभ गुरु उपासना, गुरु चिन्तन का सेवक को प्राप्त हो जाता है।

निर्मल प्रेम गुरु के साथ करना

सेवक को सदा अपनी आँखें गुरु साहब के सामने रखनी चाहिये। प्रेम के अलावा सेवक के अन्दर जितनी वस्तुयें हों उन्हें जल्द से जल्द निकाल कर फेंक दे और निर्मल प्रेम गुरु के साथ करना वाजिब है। ऐसों के पास बैठे कि जिनके पास बैठने में दुनिया की याद भूल जाय और दिल खिंचने लगे।

तू उनकी सोहबत से वैसा बन या वह तेरे ऐसा हो जावे। इन ऐसी बातों को लोग गुरडम समझते हैं वह न करें उनसे कोई जबरदस्ती नहीं करना है। लेकिन जो सही सत्य परमार्थ है उसको आपके सामने खोल करके रखा है। गुरु कृपा से यही अनुभव हुआ है कि अन्तिम पर्दा गुरु ही फोड़ता है यहाँ अपनी कोई क्रिया नहीं कामयाब होती है।

जप, तप, ज्ञान, होम, दान, तीर्थ, उपासना, बैराग आदि काम नहीं देते हैं। केवल गुरु दया पर ही सेवक पार जाता है। परन्तु गुरु माया मण्डल के पार का होना जरूरी है। जो गुरु सहस दल कँवल व शिव शक्ति के पार अथवा त्रिकुटी से ब्रह्म माया के परे पहुँचकर अपने बैठने का ठिकाना गुरु पद में बना लिया हो,

ऐसे कामयाब गुरु को करना

जब चाहे गुरु को प्रकट करने की शक्ति गुरु में आ गई हो ऐसे कामयाब गुरु को करना उचित होगा। ऐसा गुरु सेवक को माया के परे ले जायेगा। ऐसा गुरु सर्वव्यापी होता है जो कि हर मण्डल में अपना आधिपत्य जमाये हुए है। ऐसे गुरु का शिव शक्ति,

ब्रह्म माया अन्य सभी नीचे के देवता सम्मान करते हैं और ऐसे गुरु शिष्य का सदा इच्छा मात्र से ही काम कर देते हैं और जो गुरु खुद बन्धन में हो वह दूसरे जीवों की बैड़ियाँ कैसे काट सकता है। इस वास्ते पूर्ण गुरु की खोज करना और इससे अपनी जरूरी मतलब आत्म निबन्धन के लिए राजी रखना अनिवार्य होगा।

सेवक जो। सेवा करता है उसको प्रसन्न करने के लिए जब तक हम उसके हृदय में अपने लिए प्रेम उत्पन्न नहीं कर लेते हैं तब तक वह हमारी ओर क्यों देखेगा? और हमारे लिए क्या कष्ट उठायेगा?

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यदि हम प्रश्न करते हैं और कहते हैं कि महापुरूषों के दृष्टि में दया होती है। वह दूसरों के कष्टों को दूर करना अपना धर्म समझते हैं। फिर हमें उनकी सेवा करने की क्या जरूरत? यह महामूर्खता है। तुम्हारा भी उनके लिए कर्तव्य है। अपने स्वार्थ हेतु दुनियाँ में सबकी हाजिरी सेवा करते फिरते हो और नीच ऊँच का तुम्हें ध्यान हरगिज नहीं रहना चाहिए।

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परमार्थ में इसी प्रकार का नियम

मतलबी अपने मतलब के वक्त अन्धा हो जाता है और अपना मतलब सिद्ध कर लेता है इसी तरह आत्म निरूपण के वक्त तुम्हारा खास मतलब है। इस काम में तुम जरा भी अन्धे नहीं होते हो बल्कि तुम चालाक रहते हो कि महापुरूष माल असबाब धन आदि वस्तुयें न छीन ले।

परमार्थ में इसी प्रकार का नियम लागू करना होगा। किसी प्रकार की अकड़ से काम नहीं बनेगा। अहंकार त्याग के जो मालिक के भक्तों की भक्ति करता है तन मन से और जो उसके आश्रित हो जाता है उसी के भाग्य में भगवान है उसी के लिए सच्चा मोक्ष है। अन्त में सब इसी खाम ख्याली में पडे है कि आवागमन का चक्कर कट जाय।

निष्कर्ष

महानुभाव अपने ऊपर दिए गए सत्संग आर्टिकल को पढ़ा परमार्थी वचन संग्रह से लिया गया जो महात्माओं ने इस चीज को बताया कि गुरु हमेशा साथ रहते हैं और वह हमारे जगत के भोग रोग गुरु सब देखता है। निर्मल प्रेम गुरु से करना चाहिए, आदि तमाम सत्संग बातों को जाना। आशा है आपको ऊपर दिए गए पंक्तियाँ जरूर अच्छी लगी होंगी। अपने दोस्तों को अपने सोशल नेटवर्क के माध्यम से शेयर करें “जय गुरुदेव”

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