क्या पार होने का सेंटर महात्माओं के पास है? Paar hone ka center इस रहस्य को समझो

पार होने का सेंटर (Paar hone ka center) किसी काम के सीखने के हेतु उसके पूर्व केंद्र स्थान पर जाना होगा और उससे अपना पूर्व प्रेम स्थापित करना होगा। सतगुरू भी महान विश्व व्यापी शक्ति का एक सेन्टर है। सेवक का सम्बन्ध गुरु से जब तक नहीं होगा तब तक शक्ति की आकर्षण धारें तुम्हें कैसे मिलेंगी और तुम्हारा सच्चा उत्थान कैसे होगा। इस रहस्य को समझो।

परमात्मा की धारें जो नूरानी होती

जो अपनी बुद्धि और बल का अभिमान त्याग के अपने अहं को मिटा के आर्त और दुखी हृदय से भगवान को पुकारते और उनका सहारा लेते हैं उनको उद्धार करने वाली धारें दी जाती हैं। उसी के लिए प्रभू की दिव्य शक्ति आती है और मनुष्य को माया से संग्राम करने और पार होने के लिए शक्तिशाली बनाती हैं।

परन्तु परमात्मा की धारें जो नूरानी होती हैं वह किसी दिव्य महान् आत्मा महात्मा सतगुरू से प्राप्त होती हैं सीधी धारों की रोशनी लोग ले सकते है परन्तु ऐसे वही लोग होते हैं जो महान ऊँचा संस्कार लेकर मनुष्य तन में आते हैं। ऐसी आत्मायें सदा सत्य पथ पर ही रहती हैं और यही आत्मायें गुरु का सही आदर करती हैं।

एक खोजी के लिए यह नियम प्रयुक्त नहीं होगा। उसे गुरु से पूरा नाता प्रेम का जोड़ना होगा। बिना गुरु के बहुत कोशिश करने पर उन्हें थोड़ी झलक दिखाई पड़े परन्तु आगे फेल हो जाते हैं। जब तक जानकार का सहारा नहीं लोगे तब तक सही उद्देश्य में सफलता नहीं मिलती।

गुरू ही मुक्ति का दाता क्यों

मनुष्य के शरीर में इन्द्रिय के स्थान वैसे ही हैं जैसे आन्तरिक इन्द्रियों के! मन, चित्त, बुद्धि, अहंकार के भी स्थान हैं इन स्थानों की चढ़ाई एक दूसरे से बहुत विलग है। ज्यों-ज्यों ऊपर चढ़ता है त्यों-त्यों सूक्ष्म मण्डलों में साधक को कठिनाईयाँ बढ़ती जाती है।

मनुष्य अपने उद्योग से मन बुद्धि चित्त का पर्दा फाड़ सकता है पर अहंकार का बारीक आवरण दूर करना उसके सामर्थ्य से बाहर की चीज है। इसको गुरु ही दूर करता है। जब तक स्थूल रूप में अहंकार मौजूद रहेगा तब तक मुक्ति सही नहीं है इसलिये गुरु को मुक्ति का दाता माना गया है।

इन माया के बन्धनों को काटने के लिए और अपार भवनिधि पार होने के हेतु सामर्थ्य का सहारा लेना होता है। होशियार मल्लाह ही नाव किनारे लगा सकता है। माया की चप्पल अजीबों गरीब है जिसके सिर पर पड़ती है वही जानता है। इस महा भवकूप से बचने के लिए गुरु का पूरा सहारा लेना होगा गुरु तुम्हारा हो और तुम गुरु के हो बेड़ा पार है।

गुरु और शिष्य का नाता

गुरु और शिष्य का नाता पिता पुत्र का होता है। दोनों मिले जुले होते हैं। आपस की जो सम्पत्ति होती है वह एक दूसरे की होती है। पुत्र की आवश्यकता पर पिता बेखटक देता है और पिता की जरूरत पर पुत्र देता है। न पिता हिचकिचाता है और न पुत्र हिचकिचाता है।

इस तरह गुरु और शिष्य हर क्रिया में मिले जुले रहते हैं। शिष्य गुरु से इतना प्रेम करता है कि उसे अपने क्रिया का भान भी नहीं रहता। जो क्रिया होती है वह गुरु की। ऐसे शिष्य को कुछ नहीं करना है परन्तु शिष्य ऐसा बिरला नजर आता है।

गुरु भाव में लीन हुये शिष्य संसार भर में बहुत ही इने गिने होते हैं। गुरु की कृपा देखो की चन्द दिन में हमारा जीवन बदल दिया। अपना रंग चढ़ाके अपना कर लिया और ऐसा रंग चढ़ाकर अपना किया है कि अब छूटता ही नहीं है और देखो गुरु की कृपा की न जप किया, न तप किया और न कोई प्रक्रिया की न लंगोटी लगायी और न वन को गये, न घर गृहस्थी का कोई व्यवहार छोड़ा।

जैसे तब थे वैसे अब भी हैं। पर सन्त सतगुरू की दी हुई एक वस्तु अवश्य है कि जिसके लिए बड़े-बड़े तपस्वी भी तरसते हैं। यह केवल गुरु कृपा से हुआ है। हम कहा करते हैं कि जैसे भी बने गुरु को है। अपना बना लो यही पार होने की सर्वोपरि कुंजी है। सब क्रिया साधन भजन थोथे हैं। कुछ ऊँचे स्थान तक जाते है परन्तु अन्त में गुरु सहायता ही पहुँचाती है। ।

दीपक के चारो तरफ पतंगा

गुरु से प्रेम करना दुस्तर है पर ऐसे शिष्य जो अपने भाव व क्रिया को गुरु प्रेम की क्रिया में लय कर देते हैं तो वह प्रेम क्रिया ही शिष्य को गुरु स्थान पर पहुँचाती है ऐसे शिष्य सर्वस्व गुरु पर कुर्बान करने को तैयार हैं और ऐसे शिष्य पतंगे बनके गुरु के चारो ओर मड़राया करते है जैसे दीपक के चारो तरफ पतंगा घूमता रहता है।

बिना गुरु के उन्हें चैन नहीं मिलती परन्तु ऐसे आशिक मिजाज शिष्य हजारों में एक दो ही होते हैं। दिखने में शिष्यों की बड़ी तायदाद तो होती है पर हजारों में एक दो होते हैं। हजारों तो इहलोक परलोक की लालसाओं को लेकर आते हैं।

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अपना मतलब गांठने के लिए गुरु की आवभगत करते हैं। गुरु से उनका कोई स्नेह नहीं होता है। न एकत्व भाव उनके अन्दर आता है। तन धन से जो सेवा उनकी करते हैं उसमें भी उनका अर्थ छुपा रहता है। यह सबसे नीचे दर्जे के माने जाते हैं।

अन्त में मान प्रतिष्ठा का रूप

गुरु उनको दुत्कारता नहीं है कोई साधन भी उनसे छुपाता नहीं है। पर अपना समझता भी नहीं है और हमेशा उसकी ओर लापरवाह है और चौकन्ना रहता है। दूसरे वह लोग होते हैं जो प्रेम भी करते हैं अपना भी समझते हैं पर अपने आराम को नहीं छोडना चाहते।

जो चीजे इनकी है जो काम में आती है उनको यह छोड़ना नहीं चाहते हैं। इफरात वस्तु अपनी जरूरत से ज्यादा बची है उसे गुरु भेंट में देना चाहते हैं और मन में आपा बाँध लिया कि गुरु के साथ हमने बहुत के बड़ी सेवा की है।

यदि गुरु भाव प्रकट न हुआ तो सतसंगी जनों के साथ यह भाव पैदा हो जाता है कि मैं बहुत बड़ा गुरु मुख सेवादार हूँ और सतसंगी जनों को अपनी सेवा से नीचा समझना यह विचार प्रगट हो जाता है। अन्त में मान प्रतिष्ठा का रूप सामने प्रगट हो जाता है।

सतसंगी जनों को हिदायतें

हर सतसंगी अपने को छोटा समझे और जो भी सेवा गुरु के प्रति हो या संगत के लिए करता हो उसको यह समझ कर करे कि गुरु हमारा हिसाब चुका रहे हैं। वे इस प्रकार या तो दिलाते हैं या वापस कराते हैं।

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