Jai Guru Dev, महानुभाव अमृत जैसे वचनों की धारा गुरु के मुखारविंद से निकलती है जो अनमोल रत्न या अनमोल वचन (Guru ke anmol vachan) कह सकते हैं। गुरु के वचनों को हमेशा याद रखो, वह हमारे जीवन में हर तरह से सार्थक होते हैं। शारीरिक मानसिक और संसार एवं आध्यात्मिक जीवन में सुधार के लिए गुरु के वचनों को हमेशा याद रखना चाहिए, गुरु के वचन हमारे जीवन में एक अच्छी पथ पर ले जाता है और प्रभु प्राप्ति तक सार्थक और सिद्ध होते हैं। महानुभाव इस आर्टिकल में याद रखो गुरु के वचन स्वामी जी महाराज द्वारा दिए गए अनमोल सत्संग धारा को अक्षरों के माध्यम से आपके साथ सांझा किया जा रहा है आप पूरा पढ़ें। जय गुरुदेव।
अपना शिव नेत्र खोल के प्रभू दर्शन
सदा अपने हृदय को जांचते रहो, कहीं उसमें काम, क्रोध, बैर, ईर्षा, घृणा, हिन्सा-मान और मद रूपी शत्रु घुस कर घर न कर लें। इनमें जिस किसी को देखो तुरन्त हटाने का प्रयत्न करो और इनको मार कर भगा दो। पर देखना बड़ी बारीक निगाह से सचेत होकर वे चुपके से अन्दर आकर छुप जाया करते हैं और अवसर पाकर अपना विकराल रूप प्रकट करके जीव के ऊपर आक्रमण करते हैं।
किसी के बुरे आचरण को देखकर उसे पापी मत मानो बल्कि उसका मित्र और हमदर्द बनकर उसके भविष्य के बुरे आचरणों को निकालने का प्रयास करो। हो सकता है उस पर मिथ्या दोषारोपण ही किया जाता हो और वह उससे अपने आप को निर्दोष सिद्ध करने की परिस्थिति में पड़कर अनिच्छा से कोई बुरा कर्म कर लिया हो, परन्तु उसका अन्त: करण तुमसे अधिक स्वच्छ हो।
इस संसार में सभी सराय के यात्री हैं। थोड़े से समय के लिए एक जगह टिके हैं। सभी को समय पर यहाँ से चल देना है। घर, धन, पुत्र, स्त्री आदि किसी का नहीं है फिर इन नापाएदार वस्तुओं के लिए किसी से लड़ना नहीं चाहिये।
जगत जड़ अपना कुछ भी नहीं है हमारी जड बुद्धि ही हमें जड के दर्शन करा रही है। असल में जहाँ देखो वहीं वह परम सुख स्वरूप नित्य चेतन भरा हुआ है। तुम हम कोई उससे भिन्न नहीं हैं। पर यह दृष्टि सबकी नहीं हो सकती। जिन्होंने मन, वचन, कर्म से बुरा करना छोड़ दिया और अन्तर अभ्यास करके जिसने अपना शिव नेत्र खोल के प्रभू के प्रकाश का अभ्यास किया उसी जीव की सम निगाह सबके ऊपर हो सकती है।
पाप छूटने का मुख्य उपाय
पराये पापों के प्रायश्चित की चिन्ता न कर पहले अपने पापों का प्रायश्चित करो। किसी के दोष को देखकर उससे घृणा न करो और न उसका बुरा चाहो। यदि ऐसा न करोगे तो उसका दोष तो न मालुम कब दूर होगा। बराबर प्यार भाव करो और समझाते रहो। यदि तुम्हारी समझौती से न माने तो तुम उससे कम मिलना करो वह अपने किए का फल आप पायेगा।
प्रभु को साथ रखकर काम करने से ही पापों से रक्षा और कार्य में सफलता होती है। बैरी अपना मन ही है इसे जीतने की कोशिश करनी चाहिये। स्वयं पापों को देखते रहो और उन्हें जो अपने प्रिय मित्र और गुरूजन हों उनसे कह डालो। यह पाप से छूटने का एक मुख्य उपाय है
जो लोग देवी, देवता, राम, कृष्ण, ईश्वर आदि का सहारा लेकर पाप करते हैं जो नित्य पाप करके प्रति दिन कीर्तन नाम आदि से उन्हें धो डालना चाहते हैं उन्हें तो सदा नीच बुद्धि वाला समझो। उनके पाप यमराज भी नहीं धो सकते हैं।
पाप नाश तो प्रायश्चित या फल भोग से ही जाता है। क्षणिक नाशवान भोगों की परवाह ही न करो उनके मिलने या न मिलने से हानि ही क्या है? दुख सुख सदा प्रारब्ध से आते हैं। अतएव दुख अज्ञानता से भी आ जाता है और दुख ज्ञान से भी दूर हो जाता है।
यह भी मत भ्रम करो कि पाप प्रारब्ध से होते हैं। पाप होते हैं आसक्ति से और उनका पूरा फल तुम्हें अवश्य भोगना पड़ेगा। महा प्रभु परम दयाल पर पूरा विश्वास रक्खो। उसके विश्वास करने से ही तुम दुःख की आपत्तियों से बच सकते हो।
अपना अंतर अवश्य टटोलो
जिनको उस परम दयाल प्रभु का भरोसा है वे शोक रहित, निर्माह और प्रतिदिन निर्भय रहते है। बड़ाई चाहने वाले ही अपमान से डरते हैं। बढ़ाई का बोझा मन से उतरते ही मन हल्का और निर्भय हो जाता है। शरीर का नाश होना यथार्थ में मृत्यु नहीं है।
किसी को गाली न दो, वृथा न बोलो, चुगली न करो, झूठ न बोलो, सदा कम बोलो और हर शब्द को सावधानी से उच्चारण करो। औरों की त्रुटियों और कमजोरियों को सहन करो, तुममें भी बहुत-सी त्रुटियाँ हैं जिन्हें दूसरे सहज करते है, किसी को पापी समझ कर मन में अभिमान न करो कि मैं पुण्य आत्मा हूँ। जीवन में न मालूम किस वक़्त कैसा कुअवसर आ जाय और तुम्हें उसी प्रकार पाप या दुख के कर्म करने पड़ें।
यदि तुम समय पर आत्म चिन्तन न कर सको तो कम से कम दिन में तीन बार सुबह, शाम और दोपहर में अन्तर अवश्य टटोल लिया करो, तो तुम्हें मालूम होगा कि दिन भर में तुम परमात्मा और जीव के प्रति कितने अधिक अपराध करते हो।
धनियों के बाहरी वैभव को देखकर लोग समझते हैं कि यह सब बड़े सुख में जीवन व्यतित करते हैं। पर तुम उन धनियों को देखकर भूल रहे हो धनियों का तुमने कभी हृदय टटोला है? उन्हें (गुरू को) मालूम है कि धनी दुखियों की अपेक्षा कम दुखी नहीं हैं। दुख के कारण और रूप भिन्न-भिन्न होते हैं।
स्त्री सुख, धन सुख, पुत्र सुख का कभी चाह मत करो। आशा करो उस परम प्रभु की जो एक बार मिल जाने पर कभी जुदा नहीं होता है। धन, पुत्र, स्त्री से सुख नहीं है क्योंकि धन, स्त्री, पुत्र आज है और कल नहीं रहेंगे।
गुरूदेव का भक्त बनना
सच्चा और महासुख प्रभु का है जो सदा रहता है। संसारी सम्पत्तियाँ या मित्रो को पाकर अभिमान न करो, जिस प्रभु ने उन्हें यह सब कुछ दिया उसका शुकर करो और शाम सुबह उसे मत भूलो। सच्चा प्रभु का प्रेमी वही है जिसका अन्तःकरण सब पापों से रहित है और अपने गुरूदेव के चरणों में नित्य प्रति हमेशा लगा रहता है भक्त और साधु बनना चाहिए कहलाना नहीं चाहिए,
जो दिखाने के लिए भक्त बनना चाहते हैं वे तो पापों से ठगे जाते हैं। ऐसे लोगों पर पहिला हमला झूठ का होता है। दुष्कर्मी मनुष्य ही अपने पापों का दोष हल्का करने या पापों में रत होने के लिए शास्त्रों तथा सदग्रन्थों का मनमाना अर्थ करता है और उससे अपना स्वार्थ हासिल करता है।
भगवान श्री कृष्ण में कलंक बताता है। कृष्ण का उदाहरण देकर पाप करने वाले कलंकी हैं वह शुद्ध चरित्र सदा नित्य निष्कलंक हैं। जिसको गुरूदेव का भक्त बनना है उसको अपना हदय सदा शुद्ध करना चाहिए और नित्य एकान्त में ध्यान और भजन यानी शब्द का अभ्यास करना चाहिए कि हे गुरु ऐसी कृपा करो जिससे मैं तुम्हें हर समय हाज़िर देखर कुछ भी वासना उठने और रहने न दूँ।
तुम इस हदय रूपी देश में अपना स्थिर आसन जमा लो जिससे पल-पल मैं तुम्हें निरखता रहूँ और तुम्हारा आनन्द लेता रहूँ। ऊपरी पवित्रता की अपेक्षा हदय की पवित्रता मनुष्य के जीवन को उज्ज्वल बनाने में बहुत अधिक सहायता देती है मनुष्य को काम, क्रोध, लोभ, मोह, हिंसा और दम्भ आदि के दुर्गन्ध भरे कूड़ों को बाहर निकालकर हदय को प्रभू के बैठने के लिए साफ़ रखना चाहिए।
आलस न करना ही सफलता
जब तुम्हारा हदय कूड़ों से बिल्कुल साफ़ हो जावे तो तुमको चाहिए कि सन्त साधू से प्रभू की प्राप्ति का मार्ग दीन हीनता के साथ पूछना चाहिए और उनसे भेद लेकर तन मन से साधना प्रारम्भ करनी चाहिये।
अपने दोषों को बाहर से कहलवाने का प्रयास न कर मन से निर्दोष बनना चाहिये। मन से निर्दोष मनुष्य को दुनिया दोषी बतलावे तो कोई भी हानि नहीं लेकिन मन में दोष रखकर बाहर से निर्दोष कहलाना हानिकारक है।
निर्दोष सतकार्य को किसी भय संकोच या अल्पमति के कारण किसी काल में नहीं छोड़ना चाहिये। सुकर्म की निर्दोषता उसकी महान उपकारिता और तुम्हारी स्वीकृति श्रद्धा तथा टेक के प्रभाव से आज नहीं तो कुछ वर्षों बाद लोग उस कार्य को ज़रूर ही अच्छा करेंगे।
अपने विरोधी को अनुकूल बनाने का सबसे उत्तम और सीधा यत्न यह है कि उसके साथ सरल और सच्चा प्रेम करो। वह तुमसे रूष्ट रहे और तुम्हारी बुराई करता हो तो तुम्हारा कर्तव्य है कि तुम उसका हित ही चाहो और उससे बराबर प्रेम करते रहो।
अपने कार्य में आलस न करना ही सफलता की कुंजी है और ऐसे मनुष्य पर ही परमात्मा की कृपा होती है और जब परमात्मा की कृपा हुई तो साधना में मन लगता है। किसी भी मनुष्य के मुँह से कोई बात अपने विरूद्ध सुनते हो तो उसे अपना दुश्मन मत मान लो द्वेष का कारण ढढो और उसे मिटाने का सच्चे हदय से प्रयत्न करो हो सकता है कि तुम्हारी गलती हो जो तुम्हें अब तक दीख न पड़ी हो अथवा वह ही किसी बुरी वासना के बस होकर उस प्रवाह में बह गया हो ऐसी हालत में प्रेम और शान्ति से काम लेना चाहिये।
दयाल संत सतगुरू से प्रार्थना
अपने अन्तःकरण को भी टटोलते रहना साधक का मुख्य धर्म है। अन्तःकरण में काम, क्रोध, हिंसा, द्वेष, बैर, ईर्ष्या, मान अहंकार अपना घर न करने पावे। बुरा कहलाना अच्छा है, परन्तु अच्छा कहलाकर बुरा बने रहना ही बहुत खराब है। तुम्हारे शरीर से किसी प्राणी का उपकार हो जाये तो यह घमन्ड न करो कि मैंने उसका उपकार किया है।
यह निश्चय जानो कि उसको तुम्हारे द्वारा बनी हुई सेवा से जो सुख मिलता है सो निश्चय ही उसके शुभ कर्म का फल है। तुम तो निमित बन गये हो। महाप्रभू का धन्यवाद करो जो उसने तुम्हें किसी को सुख पहुँचाने के निमित्त बनाया। और उस जीव का उपकार मानो जो उसने तुम्हारी सेवा अंगीकार की।
वह यदि तुम्हारा एहसान माने अथवा नीचता प्रकट करे तो ही मन में संकुचाओ और परम दयाल से प्रार्थना करो कि हे गुरूदेव, आप सदा अच्छे कार्य में प्रोत्साहन देते रहना और बुराई से बचाना और भलाई पर सदा तत्पर रहने देना। उस पर कभी एहसान न करो कि मैने तुम्हारा एहसान किया है। एहसान करोगे तो उस पर बहुत बोझ पड़ जायेगा, वह दुखी होगा।
आइन्दा तुम्हारी सेवा अंगीकार करने में उसे संकोच होगा। फिर तुम उसे नीच समझोगे। उसका परिणाम यह होगा कि तुम्हारे और उसके बीच में द्वेष पैदा होगा। इस बात को कभी ध्यान में न लाओ कि हमने किसी की सेवा की है।
तुम्हारे शरीर से यदि किसी प्राणी का अनिष्ट हो जाये तो अपने दयाल संत सतगुरू से प्रार्थना करो और आइन्दा होशियार रहो कि इस प्रकार की गलती न करूंगा। यह बात सदा याद रक्खो कि यदि तुम्हें जब दूसरे के द्वारा ज़रा भी कष्ट मिलता है तो तुम्हें अपने हृदय में कितना दुख मालुम होता है।
किसी का बुरा मत करो
इस वास्ते कभी भूल कर भी किसी का नुक़सान न चाहो। प्रभु से सर्वदा यह प्रार्थना करते रहना चाहिए कि प्रभू व हे गुरूदेव, मुझे ऐसी सद्बुद्धि व सद्भावना दो कि मैं किसी प्राणी मात्र जीव को दुःख न दूँ और सदैव सबके साथ सत्कर्म करता रहूँ और साध सेवा करता रहूँ।
कोढ़ी, दुखी, अपाहिज को देखकर मन में हिचक न पैदा करो। अतएव यह सदा समझते रहो कि इनके पिछले कर्मो का फल है जैसा कि वे उसका फल पा रहे हैं। उससे घृणा व रूखापन न लाओ वह चाहे पूर्व का कितना ही पापी हो। तुम्हारा धर्म उसके पाप देखने का नहीं है। तुम्हारा धर्म भलाई करना तथा सेवा करने का है। तुम्हारे प्रभु की तुम्हारे प्रति यही आज्ञा है।
यदि तुम किसी प्राणी मात्र के साथ भलाई व सेवा नहीं कर सकते हो तो कभी दूसरे को दुःख देने का प्रयास न करो। यदि तुम दुख देने का प्रयास करोगे तो तुम्हीं दोषी समझे जाओगे। हो सकता है कि उससे किसी परिस्थिति में आकर भूल से ऐसा काम बन गया जिससे तुम्हें कष्ट पहुँचता हो। परन्तु हो सकता है कि अब उसके भीतर पश्चाताप की आग जल रही हो और वह संकोच में पड़ा हुआ है।
ऐसी अवस्था में तुम्हारा कर्तव्य है कि उसके साथ प्रेम करो अच्छे से अच्छा व्यवहार करो। उससे कह दो कि भाई तुम पश्चाताप क्यों कर रहे हो। तुम्हारा इसमें दोष ही क्या है। मुझे जो दुःख प्राप्त हुआ है वह मेरे पूर्व कर्म का फल है। तुमने तो मेरा उपकार ही किया जो मुझे अपना कर्म फल भुगतने में कारण बने हो। शर्म छोड़ दो। तुम्हारे सच्चे हृदय की इन सच्ची बातों से उसके हदय की आग बुझ जायेगी।
पोस्ट निष्कर्ष
महानुभाव ऊपर दिए गए आर्टिकल में अपने परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज पुस्तिका परमार्थी वचन संग्रह से लिए गए Guru ke anmol vachan, याद रखो गुरु के बचन, हमेशा हमारे जीवन में सार्थक सिद्ध होंगे। आशा है आप को ऊपर दिया गया आर्टिकल ज़रूर पसंद आया होगा। अपने सत्संग प्रेमी और अच्छे नेक दोस्तों के साथ इन बातों को ज़रूर अपने सोशल नेटवर्क के माध्यम से सांझा करें और अधिक सत्संग बातों को पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। “जय गुरुदेव”
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गुरु का पथ अपनाना क्या सरल है या नहीं?