सत्संग में व्यवहार (Satsang Me Vyavhar) के नियम स्वामी जी महाराज ने सत्संग में अपने अनुयायियों को कुछ महत्त्वपूर्ण नियम बताएँ, जो एक सत्संगी को अपने जीवन में करना चाहिए, यह सत्संग आर्टिकल में आप पढ़ेंगे सत्संगी के व्यवहार के कुछ नियम पूरे गुरु के साथ क्या करना चाहिए? तमाम जानकारी पड़ेंगे जो परमार्थी वचन संग्रह के अंश हैं। तो चलिए जानते हैं।
परमार्थियों के नियम का पालन करना (Parmarthi ke Niyam)
पूरे गुरु के साथ (Pure Guru Ke Sath) बिना पूरे गुरु और उनके सतसंग के किसी जीव का सच्चा उद्धार सम्भव नहीं है अतएव नीचे लिखा जाता है कि परमार्थियों को किस प्रकार के नियम (Parmarthi ke Niyam) का पालन करना चाहिए जिससे कि उनका पूरा लाभ हो। परमार्थी जीवों को पहले सतगुरू और सतसंग की खोज करनी चाहिये।
जब पता मिल जावे तब जिस प्रकार शीघ्र हो सके उनके सतसंग में सम्मिलित होना चाहिए अर्थात वहाँ के नियम के अनुसार व्यवहार (Vyavhar) में लाना चाहिए। अर्थात दृष्टि सतगुरू के सम्मुख करके उनके चरणों पर मत्था टेकना या चरण छू कर प्रणाम करना चाहिए जहाँ तक सम्भव हो सन्मुख अथवा दाहिने, बाएँ जहाँ सतगुरू की दृष्टि पड़ती हो बैठना चाहिए।
पीठ पीछे या दृष्टि के पीछे की ओर जहाँ तक सम्भव हो न बैठे क्योंकि दया भरी हुई दृष्टि वहाँ न पड़ेगी और वचन भी सन्मुख रहने से जैसे सुनाई देंगे वैसे दृष्टि के पीछे रहने से स्पष्ट सुनायी न देंगे तथा दृष्टि भी किसी अंश तक चंचल रहेगी।
जब सतसंग (Satsang) में जावे अपने को शून्य (0) तथा कम ज्ञानवान समझकर दीनता के साथ जावे तब कुछ लाभ की प्राप्ति होगी। जो स्वयं को पूर्ण तथा दाता समझकर अथवा परीक्षक बनकर अथवा दृश्य देखने की भावना से जायेगा वह शून्य (0) ही वापस आवेगा। कदाचित उनकी दया को कौन कहे उनकी कृपा दृष्टि भी उस पर न पड़े जिससे उसको सतसंग का लाभ (Satsang Ka Labh) न मिल सकेगा।
दृष्टि सतगुरू पर रक्खे (Drishti Satguru Per Rakhe)
जब सतसंग में बैठे (Satsang Me Baithe) तब दृष्टि सतगुरू पर रक्खे और वचन चित्त देकर सुने और समझें। कोई विचार संसारी अर्थात कार-बार अथवा व्यापार इत्यादि का मन में न लावे, नहीं तो वचन कम सुनायी और समझायी देगे और उसका रस भी नहीं मिलेगा जिस समय की सतगुरू वचन कहते हो, बीच में प्रश्न न करे।
जब वे टुकड़ा या पूरा वचन कह लें तब जो पूछना हो पूछे और स्मरण रखे की यथार्थ प्रश्न के अतिरिक्त जिसका की कोई उससे सम्बन्ध हो, दूसरी बात न पूछे कहे, अन्यथा भाव समझ में न आवेगा। जो बात सुने उसका मनन और विचार अपने में स्वयं करे।
सतसंग में ऐसा बचन (Satsang Ke Vachan) हो कि किसी बुरे वस्तु के से खाने पीने अथवा विचार करने अथवा बुरे कर्मों के करने से पथ्य करना चाहिए तो अपनी शक्ति के अनुसार उसके मानने में अन्तर और बाहर में प्रयत्न करे। जो बात नई सुनायी दे उनको जहाँ तक सम्भव हो स्मरण करे और सतसंग के पश्चात उनका मनन करके उन्हें हृदय में बसाया जावे।
सतसंग में बैठकर मन को (Satsang Mein Baith Kar)
व्यर्थ और निष्प्रयोजन बाते न करे न संसार के समाचार सतसंग में सुनावे, न संसार के बड़े और धनी राजाओं आदि की कथा कहे, न उनके व्यवहार और चालचलन की बातों का प्रकाश करे न कचहरी दरबार के मामलों तथा मुकदमों और लड़ाई-झगड़ों की व्याख्या और न अपने भाई-बन्धु और सम्बन्धियों के व्यवहार (Vyavhar) और उनके घरों की और नगर की वस्तुओं का वर्णन करे। क्योंकि यह सब कारखाने मलीन है और परमार्थ से उनका कुछ सम्बन्ध नहीं है।
सतसंग में बैठकर (Satsang Me Baith Kar) मन को संसारी बातों से विरक्त करना चाहिए न कि नई-नई वस्तुओं और सारहीन बातों से उसको भरते जाना तथा दूसरों के मन को भी मलीन करना। सतसंग में किसी की भी बुराई-भलाई नहीं करना चाहिये।
किसी के मामले अथवा कार्यवाई पर चाहे वह संसार अथवा राज दरबार से सम्बन्धित हो अपने विचार प्रगट करना अथवा मत लगाना उचित नहीं है। क्योंकि सतसंग परमार्थ का घर है न कि संसार के रगड़े-झगड़े के प्रकार की बातो का।
परमार्थी कक्षा के बाद ऐसी बातें जहाँ कहीं भी होती हैं वे परमार्थ के अमूल्य तथा हितकारी वचनों (Hitkari Vachanon) को भुलाने वाली होती हैं। ऐसे संघ तथा समाज में परमार्थी को कभी सम्मिलित नहीं होना चाहिये।
परमार्थी बचनों के मनन (Parmarthi Vachano)
यदि कोई कहे कि विद्या बुद्धि और चतुराई की बात करने में कुछ हानि नहीं है अपितु इससे विद्या और बुद्धि (Knowledge And Wisdom) विकास होता है तो उसको समझाया जाता है कि सच्चे सतसंग में विद्या बुद्धि भुलाये जाते हैं न कि उसका स्मरण कराया जावे और उन्नति का प्रयत्न किया जावे।
ऐसी बातें परमार्थी बचनों (Parmarthi Vachano) के मनन, अन्तर में भजन और अभ्यास के लिए महान विध्न कारक और बाधा उपस्थित करने वाली होती हैं सच्चे परमार्थी को उनसे कठोर पथ्य करना चाहिये। सतगुरू और उनके प्रेमी जनों को यह सब बात अति रूचिकर होती है। ऐसे लोगों का जो स्वभावतः ऐसी बातों में रत रहते हैं, सतसंग में सम्मलित होना वे स्वीकार नहीं करते।
इन सब बातों के अतिरिक्त जिनका कि वर्णन ऊपर हुआ है सतसंग में बैठकर (Satsang Me Baith Kar) ऊघना या सोना परमार्थ की उन्नति में महान बाधक होता है तथा वहाँ के आदर्श और नियम के विरूद्ध है। किन्तु ऐसे लोग जो गहरा सतसंग कर चुके हैं वे यदि ध्यान और अपने मन और सुरत को समेटकर बैठे या अलग एक कोने में लेटे रहे तो उनकी दशा साधारण ऊघने अथवा सोने वालों से विलग होती है।
कुछ ध्यान सतसंग की कार्यवाही (Satsang Ki Karvaahi)
वे अचेत नहीं होते, न उनपर तमोगुण का प्रभाव होता है। वे तो अपने मन और सुरत (Man Or Surat) को समेटे हुए अन्तर में एक प्रकार का रस लेते रहते हैं और नई शक्ति प्राप्त करते है। कभी-कभी वे अधिक खिंच जाते हैं अथवा कुछ ध्यान सतसंग की कार्यवाही अथवा अपनी सेवा की ओर से ही रहता है।
कुछ लोग जो पहिले ठीक ढंग से अधिक समय तक सतसंग के समय अपने अन्तरी अभ्यास जैसे ध्यान आदि में लीन हो जाते हैं। प्रगट में तो वे बैठे-बैठे सोते दिखाई देते हैं किन्तु यथार्थ में वे चैतन्य होते हैं और अन्तर में रस लेते हैं अथवा चरणों में लीन होते हैं।
विदित हो कि ऐसे लोगों को मन और सुरत (Man Or Surat) समेट कर ऊंचे स्थान पर बिठाकर वचन या शब्द सुनने या दर्शन करने का रस तथा स्वाद साधारण रूप से बैठने की अपेक्षा अधिक मिलता है। किन्तु वह दशा गहरे सतसंगियों की तथा अभ्यासियों की होती है।
बचनों को सुनना और उनका मनन करना (Vachno Ko Sunna)
नये परमार्थियों को होशियारी से बैठना खुले नेत्रों से दर्शन करना, चित्त से बचनों को सुनना और उनका मनन करना अपेक्षा तथा आवश्यक है। यदि वे ऐसा नहीं करेंगे तो गहरे सतसंगियों की स्थिति तक नहीं पहुँचेगे। सच्चे खोजी और दर्दी के लक्षण यहीं है कि वे सतसंग में बहुत चैतन्यता के साथ बैठे, किसी बचन का एक शब्द भी न जाने देवे अर्थात कुल वचन को ध्यान से सुने समझे तथा उसका मनन करे।
निष्कर्ष
महानुभाव ऊपर दिए गए सत्संग आर्टिकल के माध्यम से अपने जाना पूरे गुरु के साथ सतसंग में व्यवहार के नियम Satsang Me Vyavhar, एक सत्संगी को सत्संग के भाव क्या होना चाहिए? सत्संग मैं पूरे गुरु के साथ हमारा व्यवहार क्या होना चाहिए, उसके कुछ नियम जाने। आशा है आप को ऊपर दिया गया कंटेंट जरूर अच्छा लगा होगा और अधिक सत्संग आर्टिकल पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। मालिक सब पर दया करें जय गुरुदेव,
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