इस मानव अनमोल तन (Anmol Tan) से अपने किए हुए गुनाहों की माफी मांग सकते हैं। अपने बैराग और विवेक से एक रास्ता तय कर सकते हैं भविष्य के लिए प्रार्थना कर सकते हैं। गुरु की निंदा सपने में भी नहीं करना चाहिए, गुरु स्वरूप के आगे साधना करके हम मनुष्य अनमोल तन को सफल बना सकते हैं। महापुरुषों ने क्या कहा जानते हैं इस Anmol Tan से अपने गुनाहों की माफी कैसे मांगे? चलिए शुरू करें जय गुरुदेव,
गुरू की निन्दा स्वप्न में भी नहीं
इस मानव अनमोल तन (Anmol Tan) से गुरु की निन्दा स्वप्न में भी नहीं करनी चाहिए समझ लो प्रेमियों तुम्हारे हित के लिये कहता हूँ। अगर तुम मानोगे नहीं तो तुम्हें बहुत पछताना होगा। नर्क में निश्चित जाना है यह सारे सन्तों का निचोड है।
हरि गुरु निन्दक दादूर होई।
जनम बायस पाव तन सोई॥
जो गुरु की निन्दा करते हैं उन्हें चमगादड़ों का जन्म मिलता है। सदा उल्टे टंगे रहते हैं और अनेक प्रकार की पीड़ायें मिलती हैं। एक पर दूसरी चिड़िया सदा हमला करती है और खा जाती है। जीव काम करने के लिए आया था।
Anmol Tan Se गुनाहों की माफी माँगे और भविष्य के लिए प्रार्थना
सेवक होकर शरारत करेगा उसको माफी मालिक और गुरु दरबार में नहीं होगी। सेवक के आचरणों से बहुत से जीवों का लाभ होता है और सेवक के बुरे आचरणों से बहुत से भोले जीवों का नुकसान हो जाता है और सन्त दया और मालिक के भेद से दूर रह जाते हैं।
सेवक को जो गुरु के पास रहता है, उसे हर तरह से सचेत रहना चाहिए और बचन संभाल कर निकालना चाहिए, नहीं तो सवेक की बेइज्जती होगी। वह सेवक के मनों से उतर जायेगा। मनसुख कहलायेगा गुरु द्रोही में उसकी गिनती होगी व्यभिचारी कहलायेगा। गुरु के दरवाजे पर ठहर कर अपने गुनाहों की माफी माँगे और भविष्य के लिए प्रार्थना करे।
कुसेवक के भाग्य से यदि सतगुरू संग प्राप्त होता रहे तो इसकी समझ भी धीरे-धीरे बदल जायेगी और कुछ ही दिन के साधन से जब सुरत शब्द आवाज के साथ जुड़कर सिमटेगी तब ऊंचे देश की तरफ चढ़ाई होगी, तब गुरु स्वरूप की महिमा उसके चित्त में समावेगी। फिर वह भी प्रेमियों के अनुसार अभ्यास में थोड़ी बहुत गुरु स्वरूप की मदद लेकर चढ़ने लगेगा। फिर उसका रास्ता आसानी से तय होगा।
विवेक और वैराग पर जोर देकर रास्ता तय करना
स्पष्ट यह है कि चाहे कोई प्रेम अंग लेकर चले या विवेक और वैराग अंग पर जोर देकर रास्ता तय करना प्रारम्भ करे, दोनों को पिण्ड देश से धीरे-धीरे अलग होकर अपने निज धाम की तरफ चढ़ना और चलना आवश्यक है। जब तक सुरत माया के घेरे के ऊपर न जावेगी तब तक कार्य पूरा नहीं बनेगा।
जब तक सुरत सत्तलोक सतगुरू देश में न पहुँचे तब तक निर्भय और निश्चित नहीं हो सकता और न परम आनन्द को प्राप्त हो सकता है और वहीं पहुँचकर जनम मरन और कलह क्लेश से छुटकारा होगा बिना गुरुकृ पा से सच्चा धाम नहीं मिलेगा। गुरु के पास जाओ।
अभ्यासियों में एक नुख्स आ गया है। गुरु से युक्ति पूछकर शीघ्र अलग हो जाते हैं। इस मानव अनमोल तन (Anmol Tan) से अपना बल लेकर साधना करते हैं और अपने बैराग्य आदि का बहुत विश्वास करते हैं। जो गुरु स्वरूप का प्रेमी चिन्तन करते हैं उन्हें वे तुच्छ समझते हैं। अपने विवेक वैराग्य से उनको कम समझते हैं।
गुरु स्वरूप के आगे साधना करे
उन प्रेमियों को गुरु स्वरूप में और थोड़े से अभ्यास में आनन्द मिल जाता है। गुरु स्वरूप को अगुवा रखने से मन इन्द्रियाँ विघ्न नहीं डालती हैं वह लोग अभ्यास करते ज्यादा नजर आते हैं और अपना बल लेकर मन इन्द्रियों से हर रोज जूझते तथा लड़ते हैं फिर भी उनको प्रेमियों के बराबर रस आनन्द नहीं मिलता है।
उसके अहंकार में आकर समझते हैं कि हमारे बस पुरुषार्थ का फल है फिर गिर जाते है। मन और इन्द्रियाँ भोगों में जब गिरती हैं फिर उटना कठिन हो जाता है। इस मानव अनमोल तन (Anmol Tan) से गुरु स्वरूप को आगे करके साधना करे।
बहुत से लोग मुझसे रूष्ट हो जाते हैं। जैसा कि गुरु उनके मन मुताबिक बोलते व इज्जत नहीं करते हैं। या तो जो गुरु के निकट रहते हैं उनसे उनका मन मुटाव किसी किस्म का हो जाता है या उनकी प्रतिष्ठा को देख नहीं सकते हैं। उनसे उनका अन्तर जलता रहता है और समय पर आकर उबल पड़ते हैं।
भावों में उनके कम वेश होता रहता है कभी अच्छे और कभी बुरे की तरफ होने लगते हैं। यह कभी नहीं समझते कि हमारा मन बहुत पाजी है, जो हर वक्त तंग करता रहता है और सौ दफा प्रभू-प्रभू कह कर कुछ नहीं समझ पाते हैं। गुरु पूरा भी कहेंगे और अन्तर अधूरा समझेगा। ऐसे भी काल माया के चक्कर में रहते हैं।
मनुष्यों को मानव अनमोल तन (Anmol Tan) मिला
सभी मनुष्यों को मानव अनमोल अज्ञान तन मिला। मानव अनमोल अज्ञान मनुष्य शरीर में आकर जीव आत्मा को भूल गया इसी कारण अनेक प्रकार की विपदा जीव को उठानी पड़ती है और जीव इस अनमोल जीवन में तड़पता रहता है। मनुष्य शरीर में जब जीव तड़प रहा है, फिर किन शरीरों में जीव को आराम मिलेगा।
मानव अज्ञान तन (Anmol Tan) में रहने वाले जीवों तुम अपनी अल्प बुद्धि से सोचो कि कहाँ तक सत्य है। सत्य का अनुभव तुम्हारी आत्मा करेगी जो उस सत्य पुरूष की अंश है। हम बुद्धि की उपज वाली वस्तुओं में अपनी मानसिक व शारीरिक शक्ति क्षीण करते हैं और अन्त में कुछ हैं नहीं होता है। अन्त में व्यक्ति को निराश होना पड़ता है।
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