साधक के क्या-क्या कर्तब्य होना चाहिये?

जय गुरुदेव सत्संगी के क्या-क्या कर्तव्य होना चाहिए? एक साधक को किन-किन बातों का ध्यान रखना चाहिए? ताकि उसकी साधना सक्रिय रहे और गुरु की कृपा हमेशा बरसती रहे । इन नीचे दिए गए लाइनों में परम संत बाबा जयगुरुदेव जी द्वारा सुनाए गए, आध्यात्मिक सत्संग के सार परमार्थी वचन संग्रह नामक पुस्तक से महत्त्वपूर्ण अंश लिए गए हैं। जो एक सत्संगी को क्या-क्या सावधानी रखना चाहिए? इस आर्टिकल में आप पढ़ेंगे चलिए शुरू करें, जय गुरुदेव।

साधक के क्या-क्या कर्तब्य होना चाहिये
साधक के क्या-क्या कर्तब्य होना चाहिये

सत्संगी के कर्तव्य क्या क्या

हर सत्संगी को हिदायत है कि वह अपने सत्संगी भाई के साथ सच्चा और निस्वार्थ बर्ताव रखें और अपने आप को जांचता चले कि मेरे में कोई अवगुण तो प्रवेश नहीं हो रहे हैं। सच्चाई का रास्ता साधक के लिए सुलभ होगा। साधन के वक़्त साधक को चिंता नहीं व्यापेगी।

साधन करते वक़्त साधक मन तरंगों के साथ उड़ने लगता है और जहाँ भोगो की वासनाओं लगा रखी है वहाँ विचरता रहता है। साधन करते वक़्त साधक यदि समय की खानापूरी करेगा तो उसका साधन कभी नहीं बनेगा। गुरु साधन के साथी हैं ना कि वासना के.

वासनाओं का गुब्बारा साधक के अंतर में मौजूद है। एक साधक जो कभी सिनेमा नहीं जाता है परंतु सत्संग में फंसकर सिनेमा देखने चला गया और आख़िर असर यह हुआ कि साधन साधक ने साधन करना छोड़ दिया और कुछ ही दिन बाद वदकारी में फंसकर अपने आप को पतन कर दिया।

बुरी संगत से दूर रहना चाहिए?

साधक को हमेशा बुरी संगत से दूर रहना अति आवश्यक है ताकि साधक के अंदर बुरी संगति का असर ना हो, देखने में आता है कि बुरी संगति का असर जल्दी हो जाता है इसका कारण यह है कि संसार के कर्म करने का महावरा पुराना पड़ा हुआ है और परमार्थ की बुनियाद मुद्दत से छूट चुकी है।

इसी कारण परमारथ पर क़दम नहीं होता है। अब साधक सुन सुना कर सत्संग में पहुँचता है। यदि पूर्व की खोज साधक के अंदर परमार्थ की हो तो साधक गुरु के पास पहुँचकर अपना कुछ काम बना सकता है।

आंखें बहुत खराब है। इनकी निगरानी बुद्धि का कर सकती है। यदि बुद्धि मलीन है तो आंखें किसी सूरत में साधक काबू नहीं ला सकता है। दुनिया के लोग आंखों से परेशान हैं। यही आंखें हैं जो माता, पिता, बहन, बहू का भेदभाव नहीं आने देती हैं

सर्व एक रस निगाह हो चुकी है अब आत्मा ज्ञानियों की तरह लोग अभेद के कर्म करने लगे हैं। समाज का स्तर इसी कारण गिर चुका है। जब साधक गुरु के पास पहुँचता है तो गुरु यह देखता तो है ही कि इसके स्वभाव कैसे हैं? गुरु साधक के को पहचानता है कि कौन-सी इंद्रियाँ इसकी ज़्यादा चंचल हैं। उसी चंचलता का आदेश देते हैं।

आत्मज्ञान किसे कहते हैं?

सत्संगी का मन स्थिर हो और बाद में जब साधक साधन पर बैठे तो सुरत निरत को स्थिर होने चाहिए, तब कहीं अंतर की आँख खुलेगी। अब साधन पर फिर जाओ. सुरत ने अंतर में प्रकाश पा लिया और चरणों का साक्षात्कार हुआ। उस साधक के अंदर एक इस तरह की स्फूर्ति आती है,

और अपने आप को समझने लगता है कि मैं तन नहीं, धन नहीं, बुद्धि नहीं और कोई सामान नहीं हूँ मैं एक आत्मा हूँ। मेरा रूप सत् चित्त स्वरूप है मैं इन सब का दृष्टा यानी चलाने वाला हूँ। मैं अलिप्त हूँ, अजन्मा हूँ और मेरा रूप सब में समाया है। यानी मैं सब जगह हूँ। आत्मज्ञान इसी को कहते हैं।

साधक को समझाया जाता है कि यह अंधी माया है इसने साधक के सुरत के ऊपर पर्दा डाल रखा है। जब तक साधक में पूर्ण अंग लेकर बिरह उत्पन्न नहीं होगी। तब तक यह अंधी माया का आकाश नीला है जिसमें चरण खिले हैं नहीं टूटेगा।

साधक को तड़प के साथ रोना होगा। जब रोएगा नहीं तब तक वज्र फाटक यानी पर्दा नहीं टूटेगा। इसी को कबीर साहब ने कहा है “बिन रोये नहीं पाइया साहब का दीदार” इसी पर जिकर गोस्वामी जी ने किया है कि यह जड़ चेतन की ग्रंथि जीव के साथ बंधी है, इसी के टूट जाने पर कहा गया है कि-

“छोरत ग्रंथि पांव जो कोई, तब यह जीव कृतारथ होई”

चरणों में सुरत जोड़े रहना चाहिए

सत्संगी (साधक) गुरु का पूरा बल और सहारा लेकर साधन करना शुरू कर दें और अपना इम्तिहान करता चले। साधक का इम्तिहान गुरु ही लेते हैं और किसी के हस्ती नहीं हैं जो साधक का इंतिहान ले। गुरु हर प्रकार समरथ हैं।

जब साधक की दिव्य आँख खुल जाती है और चरणों का दर्शन होता है तब साधक गुरु को याद करता है, उसी समय गुरु उन्हीं चरणों में होकर नज़र आते हैं। तब साधक अपने को धन्य-धन्य कहता है और कुछ-कुछ गुरु की महिमा का आभास होना शुरू हो जाता है।

गुरु चरणों में अपनी सुरत जोड़े रहना चाहिए, यह वह वटवृक्ष है जो सर्व वासना पूरी करता है इसकी शीतल छाया में पहुँचकर सुख और अद्भुत आनंद प्राप्त होता है। यही चरण है जिसमें होकर हम सब अपना रूप देखने के बाद इन्हें चरणों के आधार से ज्योति का दर्शन होता है।इन्हीं चरणों की मदद से हमारी सुरत सूर्यलोग, चंद्रलोक, बैकुंठलोक, गंधर्वलोक, इंद्रपुरी, शक्तिलोक आदि सूक्ष्म देशों में जाती है।

वासनाओं का त्याग

यदि साधक वासना को त्याग कर नित्य साधना करें तो गुरु कृपा से इन लोको में महीना दो महीना में जा सकता है। सहारा तो साधक को गुरु का पूरा होगा, उसकी मदद बगैर साधक एक तिल भी आगे काम नहीं कर सकता है। साधक को इस साधन में तनिक भी अभिमान नहीं करना चाहिए.

यदि साधक को इस साधन में तनिक भी अभिमान नहीं करना चाहिए. यदि साधक साधन करते समय दूसरों की सेवा करता चले तो अति सुंदर होगा। दीनता का पथ साधक के लिए लाभकारी होगा। साधक भाव की दृढ़ता साधक में ज़्यादा होना ज़रूरी है। साधक सर्वदा गुरु का सहारा लेता चले।

सत्संगी अपने स्वार्थ को किसी अनित काम में ख़र्च ना करें क्योंकि कर्म का असर आ गया तो मन मेला होगा और साधना में विघ्न होगी। जो साधक बगैर गुरु के आत्मा अनुभव करना चाहे तो कदापि नहीं होगा।

आत्म साक्षात्कार के लिए

यदि किसी साधक ने बगैर गुरु के आत्मा अनुभव किया हो उसे हमारे सामने लाओ तब सही सत्य माना जा सकेगा वरना तुम्हारा कहना ग़लत है। आत्म साक्षात्कार के लिए जिज्ञासु को अपना तन, मन, वचन बेचना होगा और इस तन, मन को खरीदने वाला ही होना चाहिए.

जब साधक को चरणों का साक्षात्कार होता है उसी समय अंतर में ध्वनि सुनाई देने लगे और ध्वनि के अंतर में रस आने लगे उस समय साधक को अधिकार है कि जिसको ज़्यादा पसंद करे उसी में अपनी सुरत रत कर दे।

साधक को चाहिए कि जिधर से ध्वनि आती हो उसी तरफ़ अपना तवज्जो ले चले और लगातार सुनने का महावरा डालें जैसे-जैसे ध्वनि आती जावे वैसे-वैसे सुरत साफ़ होती जाएगी। सुरत को शब्द, नाम धुनि के साथ जोड़ना और साथ-साथ वासनाओं की ओर से अपना मन हटाना।

शब्द चैतन्य है

जब साधक की वासनाये जो संसारी हैं उनकी तरफ़ से कमी होगी, उसी क़दर शब्द आहिस्ता-आहिस्ता अपनी सुरत को ऊपर खींचेगा। शब्द चैतन्य है सुरत को तोलता रहता है। जिस वक़्त व जिस दिन सुरत को अपने लायक कर लेगा। उसी दिन तुरंत सुरत को खींचकर ऊपर के दिव्य लोक में पहुँचा देगा।

आंखों के ऊपर दिव्य लोक का रास्ता शुरू होता है। ऊपर की ओर तुम अपनी आंखों को करो और संसार की ओर से अपना ध्यान हटाओ तब तुम्हें शब्द सुनाई देगा। यह तो साधन तीसरे तिल पर पहुँचने का है जो गुरु कृपा से ही प्राप्त होगा। जय गुरुदेव,

पोस्ट निष्कर्ष

महानुभाव आपने ऊपर दिए गए शब्दों को पढ़ा। सत्संगी के क्या-क्या कर्तव्य होना चाहिए, ताकि साधक साधना में सक्षम रहे, बाबा जयगुरुदेव ने बताए हुए सत्संग शब्दों को पढ़ा, गुरु महाराज की सब पर दया रहे और अधिक सत्संग आर्टिकल पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर क्लिक करें। जय गुरुदेव।