महानुभाव जय गुरुदेव, इस सत्संग पोस्ट में महापुरुषों ने सच्ची परमार्थी के (Sacche Parmarthi Ke Lakshan) कौन-कौन से लक्षण होना चाहिए? जो परमार्थ का काम करते हैं यानी भगवान प्राप्ति का साधन करते हैं। आध्यात्मिक रूप में परमात्मा प्राप्ति के लिए योग करते हैं। उनके लिए कौन-कौन से लक्षण होने चाहिए? इन विषय पर महापुरुषों ने अपने विचार व्यक्त किए और स्वामी जी महाराज ने सत्संग में लोगों को बताया कि परमार्थी को (Sacche Parmarthi Ke Lakshan) क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए? चलिए जानते हैं।
सच्चे परमार्थी के थोड़े बहुत लक्षण (Sacche Parmarthi Ke Lakshan)
प्रत्येक परमार्थी (Parmarthi) को चाहिए कि इन लक्षणों के अनुसार अपनी दशा और क्रियाओं को देखता चले। परमार्थी का मन कोमल तथा चित्त मृदुल होना चाहिए जिससे कि वह किसी के साथ कठोरता न कर सके तथा दुखियों का दुख ध्यान से सुनकर यदि हो सके तो यथा शक्ति सहायता करे। यदि नहीं तो उसके साथ सहानुभूति तथा संवेदना प्रकट करें।
परमार्थी (Parmarthi) की अभिलाषा सच्ची हो तथा सच्चे परमार्थ की खोज बराबर होती रहे। जब उसका पता लग जावे तब वाद-विवाद तथा पक्षपात छोड़कर उसके प्राप्त करने के लिए जो युक्ति बतलाई जावे उसका सच्चे मन से यत्न करे। परम प्रभू की उपस्थिति का पूर्ण विश्वास मन में होना चाहिए तथा उसकी भक्ति के लिए मन में नित्य नई-नई उमंगे उठती रहनी चाहिये।
जो कोई सच्चे प्रभु का पता और भेद सुनावे वह व्यक्ति प्यारा लगे, दीनता के साथ उसका संग बारम्बार करे। उससे पूरा भेद तथा युक्ति जानकर जितना शीघ्र हो सके अभ्यास आरम्भ करके अपने अन्तर में थोड़ा बहुत रस और आनन्द लेवे।
सच्ची परमार्थी के लक्षण (Sacche Parmarthi Ke Lakshan)
सच्ची परमार्थी (Sacche Parmarthi) के क्षमा और सहनशीलता उसका स्वभाव हो जावे। जहाँ तक सम्भव हो किसी से क्रोध अथवा वाद-विवाद न करे। संसारी लोगों तथा माया के पदार्थो से यथा सम्भव घृणा होवे अर्थात इनसे मिलने में मन सन्तुष्ट और प्रसन्न न होवे।
सच्चे। परमार्थ के उद्योग में संसारी लोगों से भय तथा लज्जा न करने की इच्छा रक्खे। जहाँ तक हो सके इसी प्रकार का व्यवहार आरम्भ कर दे। सच्चे प्रभू (Sacche Prbhu) की भक्ति तन मन और धन से प्रसन्नता के साथ करने की इच्छा बनी रहे और जहाँ तक बन सके उसका उद्योग करता रहे।
गुरु और प्रभु की प्रसन्नता की औरों की प्रसन्नता पर जहाँ तक सम्भव हो मुख्यता रक्खे। मन और इन्द्रियों की रूचि के साथ जहाँ तक हो सके वश में रखने की इच्छा दृढ़ रक्खे। जो काम या चाल रीति उसके परमार्थ के मार्ग में विध्नकारक हो उनसे जहाँ तक बन सके बचाव करे।
क्या करना चाहिए क्या नहीं (Parmarthi Ko Kya Karna Kya Nahi)
निन्दक लोगों के बचन सुनकर विचार के साथ कार्य करे तथा मनन करके विचार करे कि कहाँ तक उनकी निन्दा अनुचित अथवा ठीक है। यदि ठीक भी है तो उससे क्या हानि है अथवा परमार्थी (Parmarthi) का उससे कहाँ तक लाभ है। यदि अपनी समझ में कोई बात भली भांति न आवे तो प्रेमी सतसंगी (Satsangi) से उनका हाल एकान्त मैं पूछ कर अपने को सान्तवना दे तथा विश्वास करे।
किसी प्रकार का अहंकार या मान जाति पांति धन, शासन अथवा गुण इत्यादि का अपने मन में परमार्थी कार्य (Parmarthi Work) अथवा सतसंग में न रक्खे। अपने में कमी तथा अवगुणों का विचार करके अपने आपको निर्बल, तुच्छ तथा अयोग्य देखता और समझता रहे।
हर एक के साथ प्यार तथा दीनता के साथ व्यवहार और उन कमियों को दूर करने का सदा प्रयत्न करता रहे। अनावश्यक लोभ न करे तथा बिना आवश्यकता के दूसरे से कोई पदार्थ न मांगे न लेवे। जहाँ तक बने ईर्ष्या विरोध और क्रोध को अपने मन में न आने दे। किसी की बुराई दूसरे से पीट पीछे न करे और न दूसरे की बुराई सुनने का स्वभाव रखें।
अपनी मान बड़ाई के लिए कोई कार्य दिखावे का न करे। परमार्थ में ऐसा (Parmarth Me Aiasa) कार्य निष्फल समझा जाता है। जो कार्य अथवा सेवा करे वह गुरु और प्रभू की प्रसन्नता के लिए अहंकार रहित तथा चित्त में दीनता रख कर करे।
अच्छे भक्त के लक्षण होना चाहिए (Acchi Parmarthi Ke Lakshan)
यद्यपि मन में अनेक तरंगें तथा गुनावनें उठी रहती हैं और उनका रोकना तथा समेटना एकाएक बहुत कम होता है, फिर भी नित्य प्रति के अभ्यास से किसी दिन मन किसी अंश तक सिमिट आयेगा। तथा तरंग और गुनावनें बिना प्रयोजन नहीं उठेंगी। अतएव अभ्यास बिना रूकावट के नित्य प्रति नियम से करते रहना (Niymit Karte Rahna) चाहिए।
यदि अवकाश न मिले तो आवश्यक कार्य स्थगित कर दे किन्तु अपना नित्य का अभ्यास न छोड़े। थोड़ी देर तक भजन तथा ध्यान नित्य नियमित समय पर अवश्य करता रहे। जो सेवक कि किसी से ईर्ष्या और विरोध नहीं रखता सबसे मिलता और नम्रता के साथ (Namrta ke Sath) व्यवहार करता है,
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किसी व्यक्ति अथवा वस्तु में उसके मन की पकड़ नहीं, का अहंकार और मान जिसने छोड़ दिया अथवा छोड़ता जाता है श्रम तथा विश्राम जिसके सभी बराबर हैं क्षमा और सन्तोष जिनके स्वभाव में प्रविष्ट है,
सर्वदा प्रभु के चरणों में मिलने की जिनके हृदय में अभिलाषा रहती है, मन को जिसने बस में किया है अथवा थोड़ा बहुत अपने बस में कर चुका है, सच्चे स्वामी (Svami Ji) के चरणों में जिसकी प्रतीति दृढ़ और पुष्ट है, जिसने मन और बुद्धि दोनों स्वामी के चरणों में न्योछावर कर दिया है ऐसा सेवक स्वामी का निज प्यारा होता है।
सत्संगी को क्या करना चाहिए क्या नहीं (Satsangi Ko Kya Karna Chahie)
जब तक धुर की दया न होगी मन पूरे सतगुरू (Pure Satguru) नहीं मिलेंगे। पूरे सतगुरू एक फलदार वृक्ष के सदृश हैं कि फल भी देते हैं और छाया भी करते हैं। जिस भूमि में ऐसा वृक्ष न हो वह भूमि ऊसर है, वहाँ नहीं रहना चाहिए।
यदि पूरे सतगुरू (Pure Satguru) ध्यान न दें तो भी उनका सतसंग नहीं छोड़ना चाहिये। यदि सतगुरू दूसरे व्यक्ति से बात करें तो उसकों भी यही समझना चाहिए कि वह मुझसे ही बोल रहे हैं और उस बचन को अपने हृदय में लिख ले क्योंकि ऐसे सतगुरू का सतसंग करता रहेगा तो एक दिन अजर और अमर देश में निवास करेगा।
परमार्थ की प्राप्ति (Parmarthi Ki Prapti) होना बिना सतगुरू के सम्भव नहीं है किन्तु सेवक भी अधिकारी होना चाहिए कि उनके बचन को चित्त देकर सुने, निर्मल बुद्धि से विचार करे तथा उसके अनुसार थोड़ा बहुत व्यवहार करे। प्रभु का सिंघासन अन्तर में है। जो कोई प्रभु की खोज अपने अन्तर में करेगा, उसे उनका दर्शन प्राप्त होगा।
जो कोई उन्हें बाहर ढूढ़ता फिरेगा, उसे प्रभु कदापि-कदापि नहीं मिलेंगे। मन की विशेषता है कि जो कार्य रूचि से करता है उसका रूप हो जाता है। अतएव चाहिए कि प्रभु के अतिरिक्त किसी भी वस्तु से प्रीति न करे। Jai Guru Dev,
निष्कर्ष
महानुभाव ऊपर दिए गए सत्संग आर्टिकल के माध्यम से आपने जाना की महापुरुषों ने एक भक्त, Sacche Parmarthi Ke Lakshan, या परमार्थी के साधन क्रिया, दैनिक क्रिया के बारे में बताया है। क्या करना चाहिए क्या नहीं। एक परमार्थी का लक्षण होना चाहिए आदि तमाम प्रकार के महापुरुषों ने अपने संदेश में बताया है।
महापुरुषों के मुखारविंद से निकला हुआ एक-एक शब्द बेशकीमती है और उस बेशकीमती शब्द को हमें अपने जीवन में उतारना चाहिए, आशा है महानुभाव आपको ऊपर दिया गया कंटेंट जरूर अच्छा लगा होगा और अधिक पढ़ने के लिए नीचे सत्संग आर्टिकल लिंक दिए गए हैं Click करके पढ़ सकते हैं। पोस्ट पढ़ने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद, “जय गुरुदेव”
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