महानुभाव जय गुरुदेव, साधक के प्रति गुरु के वचन, गुरु और शिष्य का क्या रिश्ता है? गुरु और शिष्य का सम्बंध, क्या मानव जीवन में गुरु का महत्त्व है। गुरु शिष्य का सम्बंध कैसा होना चाहिए? क्या गुरु बनाना ज़रूरी है। आदि ऐसी बातें हैं जिन्हें परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने अपनी सत्संग वाणी में लोगों को समझाया, चलिए हम जानते हैं। बाबा जी के द्वारा दिए गए सत्संग के महत्त्वपूर्ण अंश,
इन्हें इस आर्टिकल में आध्यात्मिक साधना के बारे में, जब एक साधक साधना में बैठता है तो उसे कैसी अनुभूति प्राप्त होती है। उसके शरीर में चेतन जीवात्मा के साथ क्या अनुभूति होती है। कुछ महत्त्वपूर्ण अंश आप पढ़ेंगे।
आशिक की पहचान (Identity of lover)
परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने साधक के प्रति गुरु के वचन में उन्होंने बताया है कि आशिक की पहचान, गुरु के चरणों का कौन आशिक होगा? जिसमें यह बातें पाई जावे। एक तो जिसमें मान नहीं है। दूसरा निर्लोभी है। गुरु और संगत में अपना तन लगाता हो,
चौथा जिसमें क्रोध ना हो, पांचवा संतो साधुओं की जिसके चित्त में क़दर हो और इनका आदर करता हो। छटा जिसमें हर वक़्त चिंता हो की नर शरीर भजन के वास्ते पाया है और हर वक़्त भजन में लगा रहता हो। ऐसे जीव गुरु के चरणों का आशिक होता है।
कौन गुरु के चरणों का आशिक नहीं होता है? जिसमें मान है, जिसमें क्रोध है, जो तन सेवा नहीं करता। जिसके चित्त में गुरु के शब्द असर न करते हो। ऐसी जीव गुरु के चरणों का आशिक नहीं हो सकता है।
गुरु क्या है? (Guru kya hai)
गुरु एक परमात्मा पावर (Power) है जिस मनुष्य पोल पर बैठकर परमात्मा के गुण अथवा शक्ति का इज़हार करता है। गुरु देखने में मनुष्य मालूम होता है, परंतु अंतर की शक्ति परमात्मा के साथ मिली रहती है।
जैसे एक बिजली का तार ऊपर से रबड़ चढ़ी होती है। परंतु अंतर में पूर्ण पावर काम करती है। उसी रबर को हटाकर मनुष्य तार के साथ जोड़ देता है। तब उसकी शक्ति का इज़हार होता है और देखने में पूर्ण रूप से मालूम होता है।
गुरु मिलने पर इस प्रकार तुम्हारे अंतर में शक्ति काम करती है, जब गुरु तुम्हें मिलते हैं तो अपनी कृपा से जो तुम्हारे ऊपर रबड़ की तरह खोल चढ़ा हुआ है, जिसके कारण अपने आप की शक्ति को नहीं पहचान पाते हैं। गुरु रबड़ की खोल को हटाकर यानी कर्म आवरण को हटा कर इस सुरत को नाम पावर के साथ जोड़ देता है।जब सुरत नाम पावर के साथ जुड़ती है उस वक़्त अपनी निजी शक्ति का विकास होना शुरू हो जाता है।
सेवक के कर्तव्य (Servant duties)
सेवक के कर्तव्य, साधक गुरु कृपा का सहारा स्वाभिमान को त्याग कर लेता है क्योंकि जब तक स्वाभिमान रहेगा, तब तक शक्ति का विकास नहीं हो सकता है। कारण जड़ मोटे खोल में जड़ता का स्वाभिमान रहता है, जिसके कारण सूक्ष्म शक्तियाँ प्रगट नहीं होती हैं।
अपनेपन का त्याग करता हुआ जीव काम करता है वह तो साधक बनकर कुछ प्राप्त कर सकता है। पर अपने कर्मो का अभिमान है तो साधक कहीं भी गिर सकता है। सरलता साधक को इसी में है कि जो कर्म करे वह आज्ञा के अनुसार गुरु को अर्पण कर दे उससे साधक का बंधन नहीं है।
साधना में तरक्क़ी (Progress in cultivation)
कुछ लोग साधन करते हैं परंतु उन्हें तरक्क़ी क्यों नहीं होती है? इसका मुख्य कारण यह है कि जब साधन में बैठते हैं, उसी वक़्त उन्हें गुरु शब्द का ध्यान नहीं रहता है। साधन करने वाले के इरादे पहले से होना चाहिए,
इरादों के अनुसार साधक का साधन चलता है इसी अनुसार गुरु दया करता हैं। गुरु की दया का दरवाज़ा साधक जब पा सकता है, जबकि साधक साधन के द्वारा अपनी दोनों आंखों को उलट कर ऊपर की ओर करें और अपनी सूक्ष्म दृष्टि टिक जाबे और सुरत प्रकाश पाने लगे तो साधक को समझ लेना चाहिए कि गुरु की कृपा का दरवाज़ा खुलना प्रारंभ हो गया है।
प्रकाश आने पर (On light)
प्रकाश आने पर, साधक को प्रकाश का आभास प्रतीत होने लगे और बार-बार प्रकाश सामने आने लगे, तो उस वक़्त साधाक के विचार बहुत प्रफुलता के होना चाहिए. विचारों को द्रढ करना चाहिए कि इस वक़्त गुरु की दया का स्रोत आरंभ हो गया है।
जब प्रकाश सामने आने लगे तो उसी प्रकाश में अपना बिंदु तलाश करना चाहिए, जो गुरु महाराज ने बतलाया है। जब बिंदु सामने आ जाए तो साधक को अपनी सुरत की दृष्टि जिसको निरत कहते हैं उसे बिंदु पर टिका देना चाहिए.
जब सुरत की दृष्टि उस बिंदु पर टिकना शुरू कर दे तो साधक बहुत सावधानी से के साथ उस बिंदु में यह कोशिश करें कि लय होने लगे। जब सुरत की दृष्टि उस बिंदु में जिसमें प्रकाश निकल रहा है लय होने लगे उसी लय होने के कुछ पर्दे आना प्रारंभ होने लगे उसी वक़्त साधक सावधानी से एक जगह पर अपनी निगाह रखें।
साधक की दृष्टि (Seeker vision)
कोशिश साधक इस वक़्त की करें कि जब उस वक़्त बिंदु में होकर पर्दे दिखाई दे तो साधक सदा पर्दे परदा के साथ ना घूम जावे। यदि साधक दृष्टि टिकाते वक़्त उन परदों के साथ घूम गया तो सत्य है कि जो बिंदु मिल गया वह भी गायब हो जाएगा और जो प्रकाश पाया था वह भी गायब हो जाएगा।
साधक अपनी साधना ही से निराश होता है। साधक को गुरु शब्द याद ना रहने से साधना का जो तरीक़ा है उसमें साधक ने गलती की है इसी कारण साधन नहीं हो पाएगा। जब कभी ऐसी अवस्था साधक की आवे उस वक़्त साधक को चाहिए कि गुरु से पूछ।
गुरु निकट ना हो तो अपने से जो अधिक साधना करता हो और जिसका अनुभव हो उससे अपनी गलती का तरीक़ा पूछे फिर साधक निराश नहीं होंगे। साधक की दृष्टि उस पर्दे के सामने टिकने लगे और प्रकाश बढ़ता हुआ नज़र आए तो साधक अपनी निगाहें को उसी प्रकाश पर रखें। जय गुरुदेव,
पोस्ट निष्कर्ष
महानुभाव परम संत बाबा जयगुरुदेव जी महाराज ने आध्यात्मिक साधना जीवात्मा परमात्मा के इस खेल के रहस्य को बतलाया है। जो आपने ऊपर पढ़ा है हम क्रमबद्ध तरीके से परमात्मा परमार्थी वचन संग्रह के महत्त्वपूर्ण अंशों को आपके साथ शेयर करेंगे। इस वेबसाइट को बराबर फॉलो करते रहें, अपने बुकमार्क में ऐड करें। जय गुरुदेव
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